फरिश्ते
- सूर्यबाला
बाबू साहब देवता समान आदमी हैं भइयाजी ! मेरी माँ बताती है और माँ को बड़ी बीबीजी ने बताया है । मैं तो सिर्फ कुन्नू बाबू के साथ खेलने के लिए रखा गया हूँ । फारम के बीचोबीच कोठी है और आसपास सिवा सईस-संतरी के कोई है नहीं । सो बड़ी बीबीजी ने माँ से कह दिया, “मटरुआ को भी ले आया कर यहाँ, कुन्नू बाबू के साथ खाली समय में खेला करे—खुराकी भी दूँगी, दस-पाँच रुपए भी ।”
माँ कहती है, “और देवता समान आदमी किसे कहते हैं, बोल ?”
इसलिए मुझे हमेशा समझाती है कि कुन्नू बाबू के साथ कायदे से खेला कर, जो कहें वही खेला कर, जैसे कहें, वैसे ही खेला कर—ना-नू बिल्कुल नहीं । आखिर वे बच्चे ठहरे, तुझसे कुल तीन-चार साल ही तो बड़े हैं...वह तो भगवान् का दिया फल-फूल, घी-दूध पर पला-पोसा शरीर है...सो हट्टे-कट्टे होंगे ही और मैं उनसे बड़ा होने पर भी उनके सामने पिद्दी तो लगूँगा ही ।
अब कहीं उन्होंने कहा, 'मटरुआ, चल कबड्डी खेल' तो मुझे कबड्डी ही खेलना चाहिए, नहीं तो कहीं मैंने 'ना' की और वे जिद्द में बिगड़ गए तो बस, बच्चे ही ठहरे न, कहीं हाथ-कुहाथ लगा दें या फिर, बूट ही निकालकर दौड़ा दें तब ?
तो भी मैं रोता नहीं । हँसता रह जाता हूँ खिसियाकर । इससे बीबीजी खुश रहती हैं, माँ भी । कहती है—बस, ऐसे ही रहा कर तो तेरी-मेरी दोनों की जिंदगी का बेड़ा पार लग जाएगा ।
पहले छोटा था न, तो कभी-कभी भूल जाता था अपनी औकात, खेलते समय कुन्नू बाबू को हमेशा जिताने की याद ही नहीं रहती थी । एक बार हम दोनों बच्चे खेल रहे थे—कुन्नू बाबू जबरन मेरे सारे कंचे जीतते चले जा रहे थे । मुझमें इतनी अकल कहाँ ? अपने कंचे वापस माँगने लगा कि कुन्नू बाबू बेईमानी मत करो—मेरे जीते हुए कंचे वापस दे दो—कुन्नू बाबू भला क्यों देते, आप ही सोचें । लेकिन मैं अपने कंचों के लिए रोने लगा । रोते-रोते कंचे छीनने की भी कोशिश करने लगा ।
अब कुन्नू बाबू को गुस्सा न आता तो क्या आता ? एकदम हुजूर साहब की तरह गाली बक, खींचकर तीन-चार कंचे उन्होंने मेरे मुँह पर दे मारे...
मैं दर्द से चीखकर बिलबिला उठा था और जैसे चरखी पर चक्कर आता है भइयाजी, वैसे ही छटपटाकर बेहोश हो गया...कुन्नू बाबू रोते चीखते और पैर पटकते हुए कोठी में भागे। बीबीजी बिफरती हुई बाहर आई थीं, लेकिन मुझे सुन्न पड़ा देख सकपका गई थीं । कुछ नहीं बोलीं—नहीं तो भइयाजी, गलती तो मेरी ही थी । चाहतीं तो बीबीजी भी जमकर मेरी धुनाई कर सकती थीं...लेकिन उन्होंने की नहीं । कर देतीं तो मैं या माँ ही उनका क्या कर लेती ? बाबू साहब करते तो हैं कभी-कभी नौकरों की धुनाई । कोड़ा, चाबुक, छड़ी—जो भी हाथ में या आसपास रहता है, उठाकर ऐसा धुनते हैं कि सोचकर भी रोएँ काँप जाएँ ।
इसलिए तो माई मुझे हमेशा फुसफुसाकर समझाती है, “कुन्नू बाबू को कभी कबड्डी में पकड़कर चोर मत कहना...कुन्नू बाबू से कंचे मत जीतना...कुन्नू बाबू से लूडो इस तरह खेला कर कि उनकी गोटी सीढ़ी चढ़ती ही चली जाए ऊपर तक—और तेरी गोटी को साँप निगलता ही चला जाए...” सो मैं खूब चालाकी और समझदारी से खेलता हूँ—लूडो में अगर दो खानों के बाद साँप का मुँह पड़ता है और मेरा चार का नंबर पर आ जाता है तो मैं जल्दी से डाइस का नंबर दो कर देता हूँ—बस, मेरी गोटी को साँप खा जाता है ।
और इस बार तो हुजूर साहब बाहर से लौटे तो कुन्नू बाबू के लिए बहुत बढ़िया लाल रंग की गेंद और विकेट, बल्ला ले आए । कुन्नू बाबू मुझे बुलाकर चिल्लाए, “मटरुआ ! चल, किरकेट खेलेंगे ।” मैं चट विकिट-गुल्ली-बल्ला सँभाले पीछे-पीछे हो लिया । जहाँ उन्होंने कहा—सब फिट कर दिया ।
कुन्नू बाबू को सिर्फ बल्ला मारने का ही शौक है । इसलिए तो मैं गेंद ही फेंकता हूँ हमेशा । पर गेंद फेंकना आसान काम नहीं भइयाजी । हमेशा सँभालकर, चौकस होकर फेंकना पड़ता है कि कुन्नू बाबू के हाथ-पैर या माथे पर न लग जाए । बहुत तेजी से न मार दूँ। ज्यादा धीरे से भी नहीं । बस, ऐसी कि गेंद जाकर कुन्नू बाबू के बल्ले से आप से-आप टकराए । और ऐसे टकराए कि कुन्नू बाबू हुमककर बल्ला मारें तो दूर निकल जाए । जब दूर निकल जाती है तो कुन्नू बाबू खुश होकर चिल्लाते हैं, “मटरुआ देख छक्का लगाया है।” कुन्नू बाबू का खेल देखकर बीबीजी खुश होती हैं, और मेरा खेल देखकर माँ ।
लेकिन सच-सच कहूँ भइयाजी तो मेरा मन करता है कि एक बार, सिर्फ एक बार वह लाल गेंद हाथों की मुट्ठी में कसकर पूरी ताकत से फेंककर देखता—मेरी गेंद आखिर कहाँ तक जा सकती है—सिर्फ यह जानने के लिए कि मेरे हाथों में आखिर कितना दम है, मुझे पता तो चले, लेकिन माँ यह सब सुनते ही हदस जाती—'नहीं, तू अपना दम कभी नहीं आजमाना मटरुआ...कभी नहीं, तेरा, काम खेलना नहीं, सिर्फ खेलाना है कुन्नू बाबू को । तुझे खेलाने की ही तो खुराकी मिलती है—
सो तो है ही । बीबीजी माँ से कहती हैं, कुन्नू को तो हम लोग हजारों रुपए महीने के स्कूलों में भेज सकते थे, लेकिन मैं बाबू साहब के सामने रोने-गिड़गिड़ाने लगी कि आखिर एक ही तो है ले-दे के—अपने ही पास रखेंगे...”यहीं रखकर, खेल-कूद, पढ़ाई-लिखाई सबमें आगे निकाल देंगे, चाहे पैसा पानी की तरह ही क्यों न बहाना पड़े ।”
माँ फौरन निहाल होकर दोनों हाथ आसमान की तरफ उठा कुन्नू बाबू, बाबू साहब, बीबीजी और कोठी की सलामती की दुआ माँगने लगती है ।
कोठी नहीं देखी न आपने भइयाजी । माँ कहती है, सुरंग है सुरंग, कोठे-पर-कोठे—गच्चे-पर-गच्चे—जाने कितनी छतें, दुछत्तियाँ—ठंडी-गरम मशीनें...अभी ही बीबीजी के बहन-बहनोई और कई मेहमान लोग आएँगे । उन्हीं कमरों में ठहरेंगे । तमाम ताम-झाम, बरफ-लस्सी, मिठाई, फलों को टोकरियाँ ।
साँझ को सब हँसते-बोलते छत पर बैठेंगे । बाबू साहब जब ज्यादे खुश हुए तो कहेंगे—मटरुआ, चल जरा अपना बिरहा या कजरी सुना तो ।
मैं जरा भी हिचका, सकुचाया या देर हुई तो बाबू साहब गरज उठते हैं । अबे चल सुअर—'एतना मनौना काहे को करा रहा है—दूँगा एक हाथ खींचकर तो घिग्घी बँध जाएगी...अहमक कहीं का...'
बस, मैं डर के मारे जल्दी से कभी कान पर हाथ रखकर आल्हा-बिरहा गाने लगता हूँ, कभी कमर पर हाथ रखकर अहीरऊ नाच नाचने लगता हूँ...
सब लोग हँस-हँसकर बेहाल हो जाते हैं...कोई-कोई खुश होकर पच्चीस-पचास पैसे भी हाथ पर धर देते हैं...उन्हें हँसते देख खिसियाहट सी होती है, लेकिन पास बैठी माँ को आँचल मुँह पे रखे धीमे-धीमे खुश होते देखकर अच्छा लगता है । और फिर हँसते तो भइयाजी लोग मेरी सूरत-शक्ल, लिवास, बोलचाल–सभी पर हैं, क्योंकि मैं हमेशा कुन्नू बाबू के उतरे, पुराने कपड़े पहने रहता हूँ, जो मेरे बदन पर चारों तरफ झूलते रहते हैं । नाम भी 'मटरुआ'—पहले कोठी पर आए बच्चे हँसते चिढ़ाते थे, तो रोता, खिसियाता, भागकर अपने टटरे में घुसकर बैठ जाता था, पर कहा न, अब मैं बच्चा नहीं रहा...माँ से बहुत तरह की बातें सुनकर होशियार हो गया हूँ । माँ बताती है, कोठी के उसी ऊपर वाले ठंडे कमरे में तो कतल हुआ था—अभी नहीं बहुत दिन पहले–जिसके जुर्म में मेरा बाप पकड़ा गया था—किया नहीं था भइयाजी—मेरे बाप ने वह कतल...माँ बताती है गंगाजली उठाकर—कि सब जानते हैं, बाबू साहब भी, बाप तो मेरा मड़इया में सोता था—पर बाबू साहब ने आधी रात उठवाकर बुलवाया—समझाया कि पुलिस, दरोगा को खबर लग गई है—चुपचाप जुर्म कबूल कर चला जा—मेरी इज्जत का सवाल है न—फिकर न करना बिल्कुल । दस-पंद्रह दिनों के अंदर ही रिहा करवा लूँगा...।
माँ तो बताती है, वह रोई-गिड़गिड़ाई थी—पर मेरा बाप हुमककर बोला था, “अरे, इतने दिन बाबू साहब का नमक खाया है—आज उनकी इज्जत का सवाल है—कैसे मुकर जाऊँ—वह भी सिर्फ हफ्ते-पंद्रह दिनों के लिए । इतने बड़े आदमी होकर मेरे सामने इज्जत की भीख माँग रहा है 'ना' कैसे कर दूँ ।” सो पुलिस, दरोगा के सामने बिना कुछ बोले—कहे चुपचाप सिर झुकाए मेरा बाप हथकड़ी पहने उनकी गाड़ी में बैठ गया था । बाबू साहब ने खुश होकर मेरे बाप की पीठ थपथपाई थी कि फिकर मत करना बीवी-बच्चों की—तुम पर मेरा विश्वास है—इसलिए अपनी इज्जत बचाने का काम सौंप रहा हूँ । बाकी सब तो घर के भेदिए हैं, बस, महीना-पंद्रह दिन की बात है ।
मेरा बाप गद्गद हो गया था । बाबू साहब का प्रेम-भाव देखकर बड़ी शान से गाड़ी में बैठ गया था ।
बस, तब से आज तक किसी ने मेरे बाप को नहीं देखा ।
लेकिन बाबू साहब बेचारे भी क्या करें । उन्हें कोई एक-दो काम रहते हैं ? दिन-रात जब देखो, ऊपर वाले बड़े कमरों में एक-से-एक बड़े हाकिम-हुक्काम आए ही रहते हैं—वो क्या कहते हैं, मीटिंग चलती ही रहती है...और उन दिनों तो, क्या रात, क्या दिन, वैसी गहमागहमी माँ ने कभी देखी ही न थी—सारा समय बाबू साहब किसी-न-किसी के साथ—यहाँ से वहाँ भागते-दौड़ते ही रहते—पुलिस-दरोगा घेरे ही रहते...अब उनसे पूछने-बोलने का टाइम किधर...
माँ हफ्ते-चार दिन पर डरते-सहमते बीबीजी से पूछने लगी—बीबीजी उसके दो-चार दिन बाद बाबू साहब से पूछतीं फिर माँ को बतातीं—कुछ दिन और लगेंगे...और उसके बाद तो बाबू साहब और बीबीजी एकाएक जो बाहर गए तो महीनों लौटे ही नहीं...अब उन लोगों से भी इस तरह की बात हर समय तो पूछी नहीं जा सकती न ।...
दो-चार जनों ने माँ के कानों में फुसफुसाया कि बाबू साहब फुसलाते हैं, अब मटरू का बाप क्या लौटेगा, वहीं कहीं जेल में ही फाँसी चढ़ गया होगा ।
माँ बीबीजी के सामने एक दिन रोई तो बाबू साहब फुफकार उठे—उससे पूछो, कही किसने यह बात ?
माँ किसका नाम बताए—किससे दुश्मनाई मोल ले—जानती थी, होगा कुछ नहीं, बस, बाबू साहब उस आदमी को मार-मारकर चमड़ी उधेड़ देंगे । बाबू साहब से ज्यादा सच कौन बोलेगा—उन्होंने कहा तो—बहुत दूर के किसी जेल में है, मेरा बाप; अब टैम लगेगा ही।
तब से कितने नौकर आए, गए पर हम दोनों की खुराकी चल ही रही है न !
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अब यही देखिए, बीबीजी, बाबू साहब यहाँ अस्पताल तक आए, बीबीजी ने मुझसे बात भी की, समझाया कि सब संयोग है मटरुआ, तू तो गिरा अपने से ही न, कुंदन तो बच्चा ठहरा, खेल-खेल में डाल हिला दिया, तूने बेवकूफी कर दी, डाल तो तुझे पकड़े ही रहना था न । खैर, तू ठीक हो जाएगा ।
यही तो मैं भी माँ से कहता हूँ भइयाजी, पर वह समझे तब न । वह तो जब कोई नहीं होता, तब मेरी आँखों पर हथेलियाँ फेर डहक-डहककर रोने लगती है...मैंने उसे समझाया कि एक आँख से भी उतना दूर देख सकते हैं जितना दूसरी से...और पैर के लिए तो डॉक्टर लोगों ने कहा ही है कि हड्डी जुड़ जाएगी और मैं एक पैर से मचक-मचक कर आराम से जिंदगी बसर कर सकता हूँ । लेकिन माँ को जैसे ये सब बातें समझ में ही नहीं आतीं । बीबी जी भी कितना खयाल रखती हैं मेरा; उस दिन थरमस में दूध और पाव रोटी लाई थीं मेरे लिए । निकालकर मुझे देने लगीं तो मैं तो भौचक्का हुआ बौड़म-सा उन्हें देखता ही रह गया, लेकिन तब तक तो फोटोग्राफर ने फटाक से फोटो खींच ली और मुझसे बोला—अरे, जानता क्या है बौड़म, तेरी फोटो शहर के अखबार में छपेगी, मैं और माई दोनों निहाल हो गए ।
बाबू साहब भी लंगड़दीन कहकर मुझसे बड़े प्यार से बोलते हैं—
'क्यों बे लंगड़दीन, खूब मजे में कट रही है न । तोड़ ले नरम बिस्तर हाँ...फिर साथ आए अपने बहनोई से हँसते हुए कहते हैं—भगवान् जो करता है अच्छा ही करता है—अब यह देखो, अपंग वर्ष है न, सो हमें घर बैठे ही अपंग सेवा का संयोग बिठा दिया—इस जमूड़े की टाँग तोड़कर...’
और हो-हो करके हँसने लगे ।
बाबू साहब को हँसता देखकर मैं और माई भी खुश होकर हँसने लगे ।
लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई भइयाजी—मेरा जामुन के पेड़ से गिरना बाबू साहब के लिए कौन सा संजोग जुटा गया । वह तो उस दिन खेल-खेल में ही कुन्नू बाबू बिना बात उखड़ पड़े । बोले, 'जा हट, आज मैं तेरे साथ नहीं खेलूँगा—भागता है या नहीं यहाँ से–गेट आउट...।’
मैं खिसिया गया, डरा भी, माई का डर, क्योंकि कुन्नू बाबू बोले थे, 'समझता क्या है, आज तुझे और तेरी माई दोनों को निकाल बाहर करवाता हूँ ।'
इसी से खिसियाकर उन्हें हँस-हँसकर मनाने लगा—अपनी सफाई भी देने लगा कि मैं क्या करता, कुन्नू बाबू, इतना सँभालकर तो मारी थी, 'पर जाने कैसे गेंद तुम्हारे बल्ले को छुए बिना ही निकल गई ।’
'शटअप'—कुन्नू बाबू अब अंग्रेजी भी पढ़ते हैं न—सो उनके अंग्रेजी में गाली बकते ही बाबू साहब, बीबीजी, खूब खुश होकर हँसते हैं, मैं भी, हालाँकि गाली मुझे ही बकते हैं ।
सो कुन्नू बाबू किसी तरह मान गए । लेकिन ऐंठकर बोले, 'अच्छा चल, लेकिन क्रिकेट नहीं खेलते । उधर बगीची में चलते हैं ।' मैं खुश होकर विकिट-बल्ले समेट फौरन पीछे हो लिया ।
बगीची में पहुँचकर बोले, 'चल, जामुन के पेड़ पर चढ़ जा—और देखकर पक्की-पक्की जामुन फेंक नीचे....।’
मैं बेहद खुश जल्दी-जल्दी पेड़ पर चढ़ गया, लेकिन पक्की जामुन थी ही कितनी ? मुश्किल से दो-चार, बहुत ढूँढ़ी तो एक-दो और मिलीं । उन्हें फेंक दिया—'कुन्नू बाबू अब और जामुन तो नहीं हैं ।'
कुन्नू बाबू फिर खीझने लगे । तभी उन्होंने नीचे से देखा—'वह, वह देख मटरुआ, ऊँची वाली डाल पर—तीन-चार एक साथ पकी हैं—जा तोड़ ला...’
मैंने एक बार उस ऊँची पतली डाल को देखा, फिर सहमकर कहा—'कुन्नू बाबू...मुझे डर लगता है ।...’
'अबे ब्लडीफूल, तोड़कर लाता है कि नहीं...' कुन्नू बाबू पैर पटककर चिल्लाए ।
'लाता हूँ...’
‘लाता हूँ.॥' मैं खिसियाकर बोला ।
'तो चढ़, बकर-बकर मेरा मुँह क्या देख रहा है ?'
मैं किसी तरह ऊँची वाली डाल पर पहुँचने की कोशिश करने लगा ।
कुन्नू बाबू को मेरा डरा हुआ चेहरा देख कर बड़ा मजा आ रहा था—'शाब्बाश ! चढ़ जा—जामुन नहीं तोड़ी तो तेरी हड्डी तोड़ दूँगा ।'
किसी तरह हिलते-काँपते मैंने डाल पकड़ी और जामुन तोड़कर नीचे फेंकी—लेकिन उतरने के लिए जैसे ही एक पैर नीचे उठाया कि कुन्नू बाबू को जाने क्या सूझी, उन्होंने नीचे वाली डाल जोर से हिला दी...
मैं इस सबसे पूरी तरह बेखबर, सँभलते-संभलते भी जोर से चीख मारकर झाड़ के नीचे बजरी पर आ गिरा...
बस, उसके बाद मुझे कुछ नहीं मालूम भइयाजी, आँखें खुली तो यहाँ अस्पताल में माई पगली की तरह रोए जा रही थी । गलती हो गई भइयाजी। होशियार रहना था, आखिर कुन्नू बाबू के साथ खेलना हँसी-खेल थोड़ी है । बालक ही तो ठहरे कुन्नू बाबू...बाबू साहब कल ही तो आए थे बीबीजी के साथ । मेरे लिए एक सेब लाए थे, सेब भइयाजी । उनकी भी मुझे सेब देते हुए फोटो खींची—माई को भी उन लोगों ने लुगरी-फुगरी पहने पीछे खड़ा कर लिया और मुसकराने को कहा ।
बाद में सब लोगों के बीच में कुन्नू बाबू मचक-मचककर लँगड़ाकर बताने लगे कि अब मटरुआ अस्पताल से छूटने के बाद कैसे चला करेगा ।
उनकी नकल देखकर बाबू साहब और उनके साथ के सब लोग हो-हो-हो कह के खूब हँसे । डॉक्टर और मरीज भी, सब लोग, मैं भी, माँ भी; लेकिन सबके जाने के बाद मैंने देखा कि माँ तो हथेलियों के बीच लुगरी के छोर से चेहरा ढाँपे हिलक-हिलककर रोए जा रही थी...और मैं समझता था, वह भी सबके साथ हँस रही है ।
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