Saturday, September 17, 2016


माय नेम इश ताता

- सूर्यबाला

तोतली ताता असल में सुजाता है।
‘ताता’ तो उसने खुद अपने आपको तुतलाए बोलों में प्रचारित कर रखा है। हुआ यह कि सवा-डेढ़ की होने के साथ ही स्कूल में उसके दाखिले को लेकर दौड़-भाग करती नीना उसे उठाते-बैठाते, बाल काढ़ते, जूते पहनाते लगातार इंटरव्यू के लिए रटाती रहती थी।
‘जब मैडम पूछेगी, व्हाट इज योर नेम चाइल्ड? तो क्या कहेगी मेरी बेबी?’ ‘ताता’-टप-टप दो तोतले ता पकी जामुन से टपक पड़ते- ‘माय नेम इश ताता...’
थकान से निढाल नीना भरपूर राहत से भर जाती। एक बार, बस एक बार ताता को शहर के बेस्ट ‘प्रेप’ में एडमीशन मिल जाता तो वह अपने ऑफिस की मोना दीवान और सपना मजुमदार को दिखा देती कि हारी हुई पारी को जीत में बदल देना भी वह जानती है।
लेकिन इंटरव्यू वाले दिन, ऐन वक्त पर ताता को न जाने क्या हो गया। पहले तो वह सोती रही थी, फिर जगी तो अचानक चिड़चिड़ी हो उठी। नीना ने उसका मूड ठीक करने के लिए उसे चॉकलेट, पेप्सी सब लाकर दिए, लेकिन इंटरव्यू वाली मैडम के सामने उसने गरदन जो लटकाई, सो लटकाई, सो लटकाई। चेहरा मनहूस घोंघे सा सिकोड़ा। मजाल है जो नीना या स्कूलवाली मैडम ताता की गरदन और चेहरा रत्ती भर भी दाएं-बाएं या ऊपर-नीचे हिला-डुला सकें। नीना बेचैन हो पसीने-पसीने हो उठी। कितनी बार दुलराया, फुसलाया, बोलो बेबी, बोलो न, बताओ मैडम को- व्हाट इज योर नेम, लेकिन ताता टस-से-मस न हुई।
अपना नाम बताना तो दूर, पूछे गए किसी भी सवाल का जवाब ही नहीं दिया। मैडम ने दो-चार खिलौने, डॉल्स दिखाईं। क्या ताता के पास डॉल है! लेकिन ताता का लटका चेहरा सुन्न सपाट। जैसे वह न कुछ सुन रही हो, न समझ रही हो। पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन।
चेहरे पर छाई खिसियाहट, परेशानी और खीज छुपाती नीना ने मैडम को समझाने की कोशिश की, लेकिन जैसी उम्मीद थी, मैडम ने बड़े तरीके से मुसकराकर कहीं और ट्राइ करने का मशविरा दे दिया।
नीना जैसे तमाचा खाकर लौटी। ताता को धप्प से सोफे पर डाला और रूआंसी होकर फट पड़ी शौनक के सामने। ‘ऐसी मनहूस, कद्दू सी सूरत बनाए बैठी रही पूरे पौने घंटे, जैसे कसम खाई हो एक शब्द भी न बोलने की- एडमीशन क्या खाक होता।’
शौनक हैरान- ‘क्या कहती हो? घर में तो चीख-चीखकर बात-बेबात ‘माय ने इश ताता, माय नेम इश ताता’ की बकबक से जीना दुश्वार किए रहती थी। सुनते-सुनते कान पक जाते, कितनी बार चीखकर चुप कराना पड़ता- शटअप! सुन लिया, योर नेम इज ताता, ओ.के.! चलो अब जाकर अपना नया वाला एरोप्लेन चलाओ, नही ंतो ब्लॉक्स बनाओ। मुझे काम करने दो, आउट।’
लेकिन ताता पर तो जैसे तोतारटंत का भूत सवार होता, विशेषकर शौनक के ऑफिस से लौटने पर। दिन भर का रटा-रटाया बीसियों बार दोहराती। यहां तक कि एक दिन ऑफिस से भन्नाए लौटे शौनक का रोकते-न रोकते भरपूर चांटा पड़ गया था ताता के गाल पर।
दर्द से बिलबिलाई ताता जोर से रो पड़ी, लेकिन हिलक-हिलक के सिसकारी भरती वह ज्यादा हकबकी, हैरान इसलिए थी कि जो कुछ उसे दिन भर रटाया जाता, बार-बार सुनाने को कहा जाता, सुनकर खुश हुआ जाता, उसे ही जब उसने पापा को खुश करने के लिए बार-बार सुनाना चाहा तो उसे चांटा मारकर अपमानित क्यों किया गया?
उस दिन शौनक बाद में पछताया भी, फिर ताता को बाजार ले जाकर बड़ी-सी एक चॉकलेट और नई डॉल खरीद लाया था। खरीदकर हलका हो लिया था। पछतावा काई सा खुरच छंट गया था। लेकिन इस वक्त नीना को दयनीय रूआंसी शक्ल देखकर वह वापस गुस्से से बौखला उठा-
‘देना था वहीं जोर का एक चांटा। बोल आपसे आप फूट जाते। मैंने पहले भी हजार बार कहा है न। अब भुगतो अपना किया। मैं होता न, तो....’
‘क्या कर लेते तुम, जरा सुनूं तो?’ शौनक की सहानुभूति प्रदर्शन की तर्ज पर शेखी बघारने वाला लहजा नीना को तमतमा गया- ‘शादी के बाद से अब तक अपना किया ही तो भुगत रही हूं। वहां चांटा जड़ देने से एडमीशन हो जाता क्या? उलटे तमाशा जरूर खड़ा हो जाता। हर बात में मैं होता तो, मैं होता तो... मैं पूछती हूं, क्यों नहीं होते, क्यों नहीं हुआ करते ऐसे मौकों पर तुम? मुझे सब मालूम है। हमेशा ऐसे मौकों पर ऑफिस की इमरजेंसी मीटिंग, वर्कशॉप आदि के नाम पर झूठ-सच बोल, अपना पिंड छुड़ाकर मुझे आगे कर देते हो, जिससे बाद में जरा भी ऊंचा-नीचा हो तो तुम अकड़कर अपना सुरक्षित वाक्य बोल सको- मैं होता तो... अब मुझे समझ में आया, ताता में ये आदत आई कहां से... ऐन मौके पर ठीक अपने पिता की तरह ही वह मौका ताककर दबोचती है।’
‘देखो अब अपनी असफलता की तिलमिलाहट ख्वाहमखाह दूसरों पर उतारने की कोशिश तो तुम करो मत।’
शौनक का स्वर कड़ा हो गया। नीना दुगुने वेग से चीखी, ‘हम दोनों की जिंदगी में सिर्फ मेरे ‘फेल्योर’ की थिगलियां और तुम्हारे ‘एचीवमेंट्स के सितारे टॉकते जाना तुम्हारी हमेशा की खूबी रही है, साजिश भी कि दूसरों के सामने....’
‘नीना प्लीऽऽज शटअप...’
नीना भी दांत पीसकर चीखी- ‘यू शटअप’- यहां तक कि शौनक का उठा हुआ हाथ नीना ने दांत पीसते हुए बीच में ही रोककर मरोड़ दिया।
और अचानक दोनों की दृष्टि दूर खड़ी, सहमकर पीली पड़ती ताता पर गई।
‘नो चाइल्ड नो।’ नीना लपकी।
‘आया!’ शौनक दहाड़ा- ‘बेबी को ले जाओ।’
आया, जिसका पूरा ध्यान अभी तक शौनक और नीना द्वारा दी जाने वाली अंग्रेजी की गालियों पर था और जो बड़े मनोयोग से रस ले-लेकर यह नाटक देख रही थी, अचानक चौंकी और झपाटे से ताता को पुचकारती अंदर चली गई।
शौनक आपे में लौटा। सोफे पर सिसकियों का ढेर बनी नीना से मुखातिब हुआ- ‘सॉरी! जानती तो हो, ऑफिस में आजकल कितना टेंशन है। दरअसल, मैं भी घर तभी ही लौटा था।’
‘और मैं? मैं तो ऑफिस पिकनिक मनाने के लिए जाती हूं न! तुम्हें मालूम है, मनचंद आजकल जानबूझकर मुझे सुनाते हुए मोना दीवान की डिजाइनों की ज्यादा तारीफ करते हैं। इधर ली गई छुट्टियों की वजह से वे मुझे शगल के लिए ऑफिस आने वाले डिजाइनर समझते हैं। ऊपर से हर रोज आया की धमकियां, ताता का एडमीशन, मोना दीवान का टेंशन, उधर ऑफिस, इधर तुम, घर, आया, ताता, फोन, बिजली, गैस, लाइसेंस, कनेक्शन, फंगस, काक्रोचेज और....‘
और कहते-कहते नीना की पीठ पर हिचकी का एक जोरदार हिचकोला उठा। हिचकोला सही मौके पर आया। शौनक पूरी तरह पिघल गया। (वरना सिसकी फूटने में एक मिनट) की भी देर हुई होती तो नीना की फेंक ईंटों के जवाब में दर्जनों पत्थर इधर भी तैयार थे।) क्योंकि ताता को एडमीशन के लिए ट्रेनिंग देने का छोड़कर तो बाकी सारे काम फिफ्टी-फिफ्टी के अनुबंध पर ही चल रहे थे। अंदर-अंदर शौनक अब भी यही सोच रहा था कि किसी तरह नीना के गुस्से की यह बला टाली जाए, किसी भी शर्त पर। खैर, वैसे भी पिछले पूरे छह महीनों से नीना ताता को दाखिले के लिए जी-जान से तैयार करा रही थी, इसमें जरा भी शक नहीं।
शौनक और नरम पड़ा- ’चलो, तुम्हें लिज में पिज्जा खिला के लाता हूं। मेरा भी लंच आज बड़ा बोर था।’
नीना कोहनी टिकाए बैठी रही, वह अब भी हताशा से उबर नहीं पा रही थी। ‘मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा जैसे, बार-बार यही लग रहा है, काश! इसवाले स्कूल में एडमीशन हो गया होता, जरा सी भी बोल गई होती, क्योंकि प्रिंसिपल तो मुझसे बहुत ही इंप्रेस्ड थी।’ (शौनक मन-मन मुसकराया बेशक, बाकायदे, ‘पार्लर’ होकर जो एडमीशन दिलाने गई थी ताता को।)
‘छोड़ो भी, और भी बहुत से स्कूल हैं। छह महीने बाद सही।’
‘पर इस स्कूल की बात ही और थी, और फिर लोगों से क्या कहेंगे? तुम्हारे-मेरे इतने कुलीग्स, दोस्त पहचान वाले कि ताता इंटरव्यू में फेल-एडमीशन नहीं हुआ।’
‘हां-हां, नहीं हुआ- बस कह देंगे लोगों से। जो सोचना हो, सोच लें, करना हों कर लें। बस चलो उठो। हम दोनों को चेंज की सख्त जरूरत है। कम्मॉन...’ शौनक ने प्यार से कंधे पर थपकी दी। ‘आया के जाने के टाइम से पहले लौटना भी तो है।’
नीना ने दीवान से चुन्नी उठाकर गले में फंसाई। होठों पर लिपस्टिक घुमाई और पैरों में सैंडल डालती निकल गई।
दोनों चले गए तो आया न चैन की सांस ली। उसने सहमी, हदसी ताता को उसके खिलौनों, रंग-बिरंगी किताबों और कलरपेनों के बीच सा ला बिठाया। ‘हां, अब अच्छे से खेलने का, चलो अपना किचन सेट से मुझे चा बना के पिलाओ तो।’
और आया आधी पढ़ी ‘तिलिस्मी कोठी’ खोलकर बैठ गई।
ताता ने जोर से पैर पटका। ‘नईं, मैं अपने कप में तुमको चाय नईं देती।’
‘ओ.के. बाबा,’ आया बिलकुल डिर्स्टब होना नहीं चाहती थी- ‘मत दो बाबा, खेल खेलो अपना, देखा कितना अच्छा-अच्छा बुक्स छोटा-बड़ा पप्पी, एलीफैंट-डॉल...।’
‘नई, मैं कुच्छ नईं खेलती- तुम मुझको श्नोवाइट की इशटोरी सुनाओ।’ आया फिर बिदक गई- ‘इशटोरी तो तुमको कित्ती बार सुनाया है, बेबी। वोई-वोई बात। अब्बी बस पिक्चर देखने का। ये देखो इशनोवाइट और ये देखो उसको जहर का एप्पल खिलाने वाली रानी- बुड्ढ़ी अम्मा-बस?’
तता अचानक रंगीन किताब पर बने चित्र की फ्रुकेड क्वीन, सौतेली रानी के बिचके होंठ, मिचमिची आंखें और सिकुड़े, बिदुरे चेहरे को देखकर चीखी- ‘आया! तुम बुड्डी अम्मा हो... हो न!’
आया सिर से पांव तक अवहेलित हो जल उठी।
‘बैड गल्ल बेबी। जाओ, अब मैं तुम्हें दुद्धू नईं दूंगी। बोलो, आया अच्छी।’
तता ने अंदाजा लगाया, आया चिढ़ रही है। उसे मजा आया- ‘नई तुम दंदी। तुम बुड्डी अम्मा।’
अपमान से सुलगकर आया का चेहरा और ज्यादा सिकुड़ता जा रहा था। बुरी तरह मुंह बिदोरकर उसने कहा ‘गंदी बेबी।’ लेकिन उसे जल्दी-से-जल्दी ताता की जबान पर आया वह शब्द भुलवाना भी था, वरना ताता का क्या ठिकाना, चार आए-गए के सामने कभी भी बुड्डी अम्मा उचार जाए।
‘चलो, दुद्धू पीओ और सो जाओ- तुम्हारा मिजाज ठिकाने नईं है। जब पापा का जोर का थप्पड़ पड़ेगा न, तब्बी तुम्हारा अक्कल....।’
स्ुनने के साथ ही ताता को पापा, मम्मी, उनका लड़ना, बिफरना और फिर कंधे सहलाते, गले में चुन्नी डाले, साथ-साथ बाहर निकलना याद हो आया।
अचानक ही वह जैसे असहाय हो आई। उसने हथियार डाल दिए और चुपचाप आया की थमाई दूध की बोतल थाम ली। लेकिन दूध फीका, ठंडा और बेस्वाद लगा, पर सहमी ताता बेमन से बोतल मुंह से लगाए रही।
बोतल मुंह में दबाए ताता की उदास आंखें अपने चारों तरफ टकटोर रही थीं। एक-से-एक महंगी मोटरकारें, एरोप्लेन, हेली कॉप्टर, बिल्डिंग सेट, किचेन सेट, डॉल्स, स्टफ टॉएज पूसीकैट जिर्राफ, छोटे-बड़े टेडीबियर, और भी न जाने क्या-क्या, फर्श पर चारों तरफ रंग-बिरंगी किताबें, चरखी, फिरकनी, ब्लॉक्स....
और इन सबके बीच ताता और आया, आया और ताता। पैराग्राफ समाप्त। अचानक ताता की आंखें एक डॉल पर ठिठकर सहम गईं। यह वही डॉल थी जो पापा ने उसे चांटा मारने के बाद खरीदी थी।
अगले हफ्ते अचानक आया छोड़ गई। नीना सनाका खा गई। तैश में आकर बिफरी- ‘ऐसे कैसे छोड़ सकते हैं हम तुम्हें? तुम्हें मालूम है मुझे ऑफिस जाना होता है?’
‘आपने तो बोला था, बेबी का एडमीसन हो जाएगा।’
‘आया! तुम्हें तो अच्छी तरह मालूम है कि बेबी का एडमीशन अभी नहीं  हो पाया।’
‘लेकिन हम लोगों को भी अच्छा जॉब रोज-रोज हाथ पे रका तो नहीं रैता न, मेम साब!’ आया ने नक्शा झाड़ा।
‘तो तुम अभी छोड़ना चाहती हो? ‘नीना दनदनाती हुई अंदर गई और पगार के नोट उसके सामने पटककर चीखी- ‘ओ.के., गेट लॉस्ट।’
आया भुनभुनाती हुई सलाम मारती निकल गई थी।
ताता ने पूरा दम लगाकर जोर से तुतलाती- ‘गेत आउत’, फिर सहमी सी सोफे पर निढाल ढिलकती मम्मी को देखकर दुबारा बुदबुदाई- ‘आया बुड्डी अम्मा, दंदी आया...। वह मम्मी की मदद करना चाहती थी, पर कैसे करे? कुछ न सूझा तो वह सोफे पर निढाल पड़ी नीना से चिपक गई। नन्हे नन्हे लटपटे बाल गालों पर झूल आए। नीना चौंकी। वह बेतहाशा ताता को चूमने लगी। आज बहुत दिनों बाद मम्मी ने उसे इतना प्यार किया था। ताता यह भी धुंधला सा समझ रही थी कि मम्मी कहीं उसे लेकर परेशान है। लेकिन ताता आखिर मदद करेगी तो कैसे? उसकी भोली आंखें जैसे नीना से पूछ रही थीं - ‘मेरी गलती क्या है?’
हां, गलती कहीं नहीं थी। किसी तरह की नहीं। नींव तो बहुत सोच समझकर रखी थी शौनक और नीना ने। अपने वैवाहिक जीवन की एक-एक ईंट नाप-जोखकर, पूरी सतर्कता और होशियारी से दोनों के दोनों पढ़े-लिखे नौकरी-पेशा, समझदार और मैच्योर। शादी का मतलब है, किसी का किसी पर दबाव या अहसान बिलकुल नहीं, इसलिए शुरूआत से ही सारे हिसाब-किताब बराबर-बराबर। अपने-अपने शौक, सहूलियतें, कॅरियर और घर-बाहर काम के घंटों का भी बराबर विभाजन और पैसों की व्यवस्था भी अपने तरीके से। एक-दूसरे की सीमा में हस्तक्षेप बिलकुल नहीं।
इस सूझबूझ पर दोनों ने अंदर-अंदर अपनी-अपनी पीठ ठोंकी थी। शादी से पहले जिस तरह रेस्टोरेंटों और कॉफी हाउसों से कई-कई मर्तबा इकट्ठे होकर दोनों ने आगामी जीवन के सारे मुद्दों हर कोण से डिस्कस किए थे, कोई तीसरा सुनता तो यही सोचता कि यह किसी विवाह या पश्चिम जैसे मधुर रिश्तों के बजाय किसी बराबरी के हकदारी दावेवाला कानूनी इकरारनामा है।
अपनी तरफ से नीना ने बड़ी बारीकी से बस एक मुद्दा और जोड़ा था कि पति-पत्नी ही नहीं, किसी अन्य तीसरे की दखलअंदाजी भी दोनों के बीच गलतफहमी का कारण बन सकती है। समझदार को इशारा काफी। शौनक ने फौरन नीना को यह कहकर निशि्ंचत कर दिया था कि शुरू से कस्बे में रह आई मां ने हमेशा शौनक को शहर के अच्छे स्कूलों में पढ़ाया है। और खुद कस्बे के उसी मकान में, ऊपर-नीचे दो-चार कोठरियां बनवा, उन्हें किराए पर उठा अब तक सारा जीवन एकादशी, प्रदोष, जन्माष्टमी, रामनवमी तथा गबन, गोदान और साकेत की सोहबत में काट ले गई हैं। वैसे भी मां की प्रकृति और जीवन-शैली कभी उन दोनों के बीच हस्तक्षेप करने वाली या बाधक नहीं बनेगी।
लेकिन इतना सोच-समझकर बिछाए गए सारे समीकरण ताता के आने के साथ ही लड़खड़ा गए थे। हालांकि ताता का आगमन कोई दुर्घटना नहीं थी। साल-डेढ़ साल में आखिर एकाध बच्चे का लाना तो तयशुदा था ही। और लाएंगे तो कमर कस के पूरी तैयारी और समझदारी के साथ।
लिहाजा नीना ने पूरे नौ महीने किताबों पर किताबें पढ़ीं। मैगजींस पर मैगजींस। उनमें लिखी सारी हिदायतें पालीं। इतने से इतने महीने बच्चे का इतना विकास, इतना ज्ञान, ये लक्षण, ये सावधानियां, पूरा बाल मनोविज्ञान और बच्चे को पालने के तरीके के कंठस्थ।
 शौनक भी प्राउड फादरहुड का खिताब हासिल करने के लिए सोत्साह जुट गया। बेबी लोशन, क्रीम पाउडर, झूले और कांट से लेकर टब, बच्चा गाड़ी तक-बाप रे! सेचा नहीं था कि एक बच्चे की अगवानी इतनी खर्चीली होगी। यह दोनों ने एक-दूसरे से छिपकर मन में सोचा। ऊपर-ऊपर तो एक-दूसरे को समझाते हुए यही कि प्राउड पेरेंटहुड से गुजरने की थ्रिल के एवज में इतना भी नहीं करेंगे दोनों??
हां, बच्चा भी फिफ्टी-फिफ्टी हम दोनों के खाते में जाएगा। पूरा डिसिप्लिन, पूरी हाइजैनिक कंडीशन। डिटॉल में नैपी धोएंगे। इंफेक्शन से बचाएंगे। टाइम से दूध। टाइम से नींद। हमारा बच्चा टाइम से सोएगा, टाइम से जागेगा। हम बारी-बारी से उसकी देखभाल कर लेंगे, दुलार-पुचकार लेंगे। पूरी सुख-सुविधाओं से बच्चे को पालेंगे। स्वस्थ पोषण और नए अच्छे स्कूल में एडमीशन यानी सवा-डेढ़ साल से इंटरव्यू की तैयारी शुरू- माय ने इश ताता....।
लेकिन पैदाइश के साथ ही ताता ने किताबों की एक न मानी। किताबों में नीना ने जो पढ़ रखा था, ताता उसका उलटा करती । वह तीन-चार घंटों के बदले पौने घंटे में ही जग जाती। एक बोतल दूध खत्म करने के बीच तीन बार सोती। भूखी होने पर भी एकाध औंस दूध पेट में जाते ही बोतल की निपल से मुंह हटाकर बार-बार हंस पड़ती। शाम भर सोती और सुबह चार बजे से किलकारी मार-मार के हाथ-पैर फेंकना शुरू कर देती। प्राउड फादर, प्राउड मदर निहाल हो लेते, लेकिन दोनों के ऑफिसों की फाइलें उन्हें आतंकित करती होतीं। नीना को दर्जन भर शर्ट की डिजाइनें पूरी करनी होतीं। शौनक को अगले पूरे साल के बजट का एस्टीमेट। आंखें थकान और बोझ से निढाल। इस वक्त, हां इस वक्त तो ताता को सोना ही चाहिए। आखिर इस वक्त वे उसे कैसे वक्त दे सकते हैं?
लेकिन किलकारी मारती ताता को क्या मालूम कि उसके पापा के इस नए विभागवाला बॉस किसी-न-किसी बहाने शौनक में चूकें निकालने की तरकीबें ढूंढ़ता रहता है, जिससे वह उसकी जगह अपने आदमियों की भरती कर सके। ताता को यह भी नहीं पता कि उसे पुचकारने, दुलराने के बीच भी उसकी मम्मी नीना के दिल पर अचानक सनाका सा बैठ जातमा है कि कहीं इन छह महीनों की मैटरनिटी लीव का फायदा उठाकर साहनी ने मोना दीवान को डिपार्टमेंट हेड का तमगा सौंप दिया तो? तो क्या कर लेगी वह?
ताता यह भी नहीं जानती कि अभ कुछ पांच महीने की भी नहीं हुई वह कि उसकी मां पर ऑफिस जॉइन करने का ‘टेंशन’ और डिप्रेशन हावी होने लगा। और धक्के दे-देकर निकाले गए खयालों के बीच भी एक मुंहफट सवाल उसे परेशान करता ही रहा कि कहीं ताता को इस दुनिया में लाकर उसने गलती तो नहीं की? शाही बच्चे सबकुछ अपनी-अपनी जगह ठीक होने पर भी यह छूटा हुआ समय, यह गंवाया गया अवसर फिर कभी हाथ आएगा भी या नहीं?
इतना ही नहीं, यह सब सोचते हुए खुद की नजरों में जलील भी होना कि छिह! क्या मेरी परिभाषा है, प्राउड मदर की? फिर एक विद्रोही आक्रोश भी कि लेकिन प्राउड मदर ही क्यों लॉस में रहे? प्राउड फादर क्यों नहीं?
इसलिए ठोस वास्तविकता की जमीन पर आया तलाश ली गई थी।
आया से पहले एक प्रस्ताव ‘मां’ के पक्ष में भी उठा था और पूरी तरह पूर्वग्रह रहित होकर विचार-विमर्श किया गया था। पहले से तय करके कि दोनों में कोई किसी की बात का बुरा नहीं मानेगा। फैक्ट इज फैक्ट। आया को नीना निर्देश दे सकती है। मां को नहीं। लेकिन मां चौबीसों घंटे रहेगी; पर फिर थोड़ा-बहुत खयाल रखना ही होगा। आया पेड सर्वेंट होगी, पगार ज्यादा लेकिन खाना अपना खुद लाएगी। मां पेड न होने पर भी खाना-पीना तो सारा अपने जैसा ही। बल्कि वे तो शुरू से रात में सोने से पहले एक गिलास दूध भी पीती आई हैं।
बड़ी देर तक आया और मां तराजू के दोनों पलड़ों पर ऊपर-नीचे होती रहीं, अंत में सारे मोल-भावों के बाद बोली आया के पक्ष में गिरी। पूरे डेढ़ साल गाड़ी अटक-अटककर चली भी, लेकिन अब?
आया छोड़ गई थी और नीना की दहशतजदा आंखों के सामने अपना सजा-सजाया  फ्लैट, परदे, दीवान और गुलदस्ते सबकुछ एक विकराल ब्लैक होल में तब्दील होते जा रहे थे।
अगला पूरा महीना जबरदस्त गहमागहमी का था। शौनक को शायद ट्रेनिंग के सिलसिले में जर्मनी जाने का चांस मिले और नीना पर खुद बाहर से मिले ऑर्डर की भरपाई करने की जिम्मेदारी।
रातोरात कहां से आया तलाश लाई जाए, वह भी चार-छह महीने के बच्चे के लिए नहीं, अच्छी-खासी बोलती-समझती ताता के लिए?
इसलिए अब बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी। तर्क-वितर्क के तराजू-बटखरे एक किनारे रखे, शनिवार की आधी छुट्टी पर नीना ने ताता की बेबी मीटिंग की और शौनक इतवार की शाम मां को उनकी छोटी अटैची के साथ लिये लौटा।
‘ताता! देखो बेटे, कौन आया है?’ यह प्यार और आदर से ज्यादा, जल्दी से जल्दी ताता को हिला-मिला देने की चिंतावश ही ज्यादा कहा गया था। ‘बुड्ढी अम्मा।’ ताता ने मटककर अरूचि से कहा और इठलाकर अपना हवाई जहाज जमीन पर तेज आवाज के साथ चलाने लगी।
‘बैड गर्ल।’ शौनक अपने आपको अपमानित महसूस कर चीखा। उन दोनों के डिसिप्लिंड ट्रेनिंग की धज्जियां उड़ा दी थीं ताता ने, मां के सामने।
‘यू बैड ब्वॉय...’
‘शटअप!’
‘यू शत्तप’
‘नई बुड्डी अम्मा, ’ नीना ने बात संभाली- ‘नहीं बेटे, दादी...’
मं ने बौखलाते-खिसियाते बेटे-बहू को संभाला। ‘कह लेने दो न! अड़ोगे तो बच्चा भी अड़ेगा। मैं कोई बाहर की हूं?’
तेतली होने पर भी ताता इतनी समझती थी कि ये तो उससे चिढ़ने-मुरझाने के बदले उसका मटकना देकर उलटे निहाल हो रही हैं। फटकार भी उलटे मम्मी-पापा को पड़ गई।
नीना जब अंदर गई तो ताता चुपके से पास आई और गोल-गोल आंखें झपकाकर धीमे से पूछ गई- ‘तुम दादी ओ (हो)?’
दादी को शरारत सूझी- ‘तुम ताता हो?’
ताता चौकी। फिर इठलाकर तुतलाई- ‘माय नेम इश ताता-’
दादी बोली- माय नेम इश दादी- ताता की दादी।’
ताता किलककर हंस दी। फिर वही शान और रोब से अपने एक-एक खिलौने ला-लाकर दिखाने लगी- ‘तुमने मेला एलोप्लेन देका ऐ? ... मैं लिंडा डॉल के लिए चाय बनाती हूं। तुम भी पीओगी? लो, नई अबी नईं पीना- गनम है- देका? तुमको इशटोरी आती है? मैं दो-दो टेडीबियर के साथ सोती हूं।’
सुबह नीना को ताता को इकझोरकर जल्दी-जल्दी उठाने की जरूरत नहीं पड़ी। तता जब तक आंखें मलती उठी, नीना, शौनक बाऽऽय करते जल्दी-जल्दी ऑफिस के लिए निकल रहे थे।
दादी दरवाजा बंद कर लौट रही थीं। ताता को दादी बड़ी अजूबा लगीं। न यह आया थी, न यह आंटी। एदल आरेंज वाली ताई भी नहीं। और न कपड़े धोकर पौंछा मारने वाली शेवंती।
उसने दादी के पास आकर पूछा-
‘दादी! तुम कौन ओ?’
थ्नहाल दादी ने उसे अपनी गोदी में समेटकर कहा, ’अपनी ताता की दादी और तुम्हारे पापा की मम्मी।’
‘तुम मम्मी ओ?.... फिल तुम ऑफिस चली जाओगी?’
‘नहीं, मैं नहीं जाऊंगी ऑफिस।’
‘क्यों? मम्मी लोग तो सारे दिन ऑफिस रैती हैं।’
‘हां, लेकिन दादी लोग ऑफिस नहीं जातीं।’
‘फिल तुम घम्में (घर में) क्या कलोगी?’
‘मैं ताता के संग खेलूंगी?’
ताता को लगा, दादी झूठ बोल रही है। आया की तरह, पापा की तरह, मम्मी की तरह। ताता तो अपने खिलौने के साथ खेलती है। आया जादुई कालीन पढ़नी है। मम्मी-पापा छुट्टी के दिन भी सुबह से ही सारे दिन क्या-क्या सफाई, क्या-क्या मरम्मत, उठाना, लाना, धरना, समेटना। दर्जनों लोगों को कर्टसी कॉल हाअअय, हाउ स्वीट, हाउ नाइस, हो-हो, ही-ही और मुंह बनाते हुए निहायत नाटकीयता से फोन कट करना। इस तरह छुट्टी के एक पूरे दिन का रस नीबू की तरह निचोड़ डालना।
लेकिन दादी तो सचमुच कहीं नहीं गईं। ताता उनके पीछे-पीछे कौतुक से घूमती रही। दादी ने अपनी अटैची खोली।
‘ये तुमाले कपले हैं? बश इतने?’
‘हां!’ दादी हंसी।
‘दादी! तुम पुअल हो? पुअल बच्चे दंदे होते हैं। वे सड़क पे खेलते हैं। दंदी चीज खाते हैं, इशी शे कार के नीचे दब जाते हैं.... ऐक्शीडेंट।’
दादी ने अटैची से पूजा की घंटी, पीतल की आरती, अगरबत्तीदान, राम कृष्ण के चित्र और छोटी सी रामायण निकाली।
‘ये तुम्हाली बुक है?’
‘हां!’
‘तुम्हाले पास अच्छी बुक्श नईं हैं? मेले पास बल रेड और येल्लो बुक्स हैं।’ फिर एकदम तमककर बोली, ‘मैं तुमें अपनी बुक्स नईं दूंगी, तुम दंदी कर दोगी।’
दादी घंटी निकालकर रखने लगीं तो वह टुन्न से बोल गई। ताता को ये आाज सारे खिलौनों से न्यारी लगी। उसने ललचाई नजरों से घंटी की तरफ देखा।
‘ये तुमाली है? तुम इशे बजाती हो?’
दादी हंस दीं- ‘तुम बाजाओगी
 लो बजाओ। पूजा करते समय हम दोनों बजाएंगे।’
ताता थोड़ा हिचकी, फिर खुश होकर घंटी बजाने लगी। दादी ने भगवान जी के चित्र एक छोटी चौकी पर सजा दिए। रूई की बत्ती बनाई और पीतल के दीपदान में तेल में भीगी बत्ती जलाई। फिर ताता के हाथ में दीपदान पकड़ाए-पकड़ाए गोल-गोल घुमाकर आरती करवाई। ताता ने एक बार दादी को गाते सुना, फिर खूब ऊंची आवाज में गलत ही तुतलाती गाती रही। और लगातार टुनुन-टुनुन घंटी बजाती रही।
चित्र में भगवान के ‘एवमस्तु’ की मुद्रा देख ताता ने पूछा, ‘दादी, भगवान्जी क्या कैसे हैं?’
‘कहते हैं, ताता बड़ी गुड गल्ल है।’
‘औल ये वाले भगवानजी क्या कैते हैं?’
‘कैते हैं, ताता खूब बड़ी सी हो जाए?’
तता की आंखें खुशी से हुलसीं कि एकाएक झप्प से बुझ गईं- ‘नईं, मैं बली होकल ऑफिस नहीं जाऊंगी।’
छादी भौंचक्क! ‘ठीक है, लेकिन क्यों नहीं जाओगी?’
‘बताऊं? ऑफिश बहुत दंदा होता है। वो मम्मी, पापा से झगड़ा करता है।’ फिर दादी के कानों के पास आकर धीरे से बोली, ‘और ऑफिश के पाश एक बश्टर्ड बॉश होता है।’
दादी सकपका गईं, ‘तुमसे किसने कहा, बच्चे?’
ताता ऐंठी- ‘नो बडी... आय नो।’
दरवाजे की घंटी बजी।
ताता चीखी- ‘दादी, मत खोलो। रूपा आंटी होंगी। वो बौत ‘बोल‘ (बोर) कती हैं। उनका बेबी राउल बौत चीखता है।’
दादी फिर अचकचाईं- ‘तुमको कैसे मालूम?’
ताता फिर इठलाई, ‘आई नो।’
दरवाजे पर आया थी। उसने सोचा था, ऑफिस से छुट्टी लेकर नीना फोन पर फोन मार ‘आया’ तलाश रही होगी। उसे देखते ही उसकी बॉछें खिल जाएंगी। सौ-डेढ़ सौ बढ़ाकर वापस आने की मिन्नतें करेगी। लेकिन मांजी को देखकर चौंक गई। अंदर जाना चाहा- ‘ताता बेबी को संभालने के वास्ते आई होंगी? क्यों मांजी? फिर भी। अपना ठिकाना छोड़कर आखिर कितना दिन रह पाओगी?’
‘जब तक ताता चाहेगी।’ आया चौंक गई। ताता भी। दादी तो सचमुच ताता के साथ ही रहती हैं, खेलती हैं। अबोध मन में दोस्ती का, विश्वास का, आश्वस्ति का एक अक्स सा उभरता गया।
आया चली गई तो दादी ने दरवाजा बंद कर पूछा, ‘अब ताता का दूध पीने का टाइम हुआ न!’
‘मैं टाइम श दूद्दू नहीं पिऊंगी तो तुम बुड्डा बाबा को बुलाओगी न।’
‘नहीं तो। बुड्डा बाबा कौन?’
‘आया बुलाती थी। आया दंदी, बैड गल्ल... दादी। अब आया आए न तो तुम कैना गेट आउट। गेट लॉस्ट....’
‘नहीं, गेट आउट किसी को नहीं कहते, बुरी बात है।’
‘कैते हैं। मैं पापा को भी कैती हूं।’ ताता उत्तेजित होकर बोली।
‘अब नहीं कहना, क्यों कहती हो?’
‘क्योंकि पापा कैते हैं। बताऊं कैशे? खूब गुश्शा होके- ताता! गेट आउट- ऐशे कैते हैं।’
‘अच्छा! मैं पापा को मना कर दूंगी कि ताता को ऐसे नहीं कहें।’
तता खुश हो गई। अपने सारे ब्लॉक्स लाकर बोली, ‘दादी! मैं तुमाले लिए घल बनाऊं?’
‘क्यों? हमारे पास घर है तो।’
‘ये तो हमाला घल है न! तुमाले लिए।’
छादी न जाने क्या सोचकर कहा, ‘अच्छा ठीक है, बना दो।’
लेकिन ताता का मन उचट गया। उसने घर नहीं बनाया। पूछा, ‘दादी! तुमाले पाछ मालूती थाउशेंड ऐ?’
‘नहीं, लेकिन मेरे पास एक बहुत अच्छी चीज है।’
‘बताओ क्या?’
‘बताऊं? मेरे पास एक बहुत ‘शुईट’ सी ताता वन थाउजेंड है।’
तता दादी के जोक पर किलकारी मारकर हंस दी। फिर तो ताता और दादी का प्रिय खेल ही बन गया। रोज दिन में कभी भी दादी एक तरह आंखें बंद कर बैठ जातीं। फिर हाथ फैलाकर एक-एक शब्द पर रूक-रूककर कहतीं- ‘मेरी-मारूति-वन-थाउजेंड कौन?’
थोड़ी दूर पर पूरे सस्पेंस में खड़ी ताता, हवा के झोंके सी आकर, दादी की गोदी में बैठकर, खुशी से चीखकर जवाब देती- ‘ताता’।
डतरी शाम अचानक कस्बे से गिरधारी आया। बताया- ‘आंधी-तूफान और घनघोर बरसात से पूरबवाली कोठरी की आधी छत उधड़ गई। आपके संदूक, पेटियां सब उघारी हैं, माताजी। किसी तरह बाल-बच्चों की निगरानी में छोड़ आया हूं... पर कब तक?... वैसे भी आप तो चारई-छह दिन बोल के आई रहीं। सब लोग वहां परेशान हैं कि माताजी बीमार-ऊमार पड़ीं क्या?’
तता ने छोटी बिल्लौरी आंखों से सब देखा, सब भांपा-
‘दादी! तुम क्यां (कहां) जाती ओ?’
‘अपने घर बेटे, तुम मेरे लिए घर बनाती थीं न!’
‘नईं।’ ताता ने आदेश दिया- ‘तुम नईं जाना।’
दादी ने बच्ची का मान रखा- ‘अच्छा, नहीं जाऊंगी।’
लेकिन ताता के मन में अंदेशा बैठ गया। दादी चली जाएंगी। मम्मी-पापा भी तो कितनी बार ऐसे ही कहते हैं, बाद में चले जाते हैं। झूठ बोलते हैं।
दादी भी किशनजी, राधाजी, घंटी, आरती सबकुछ लेकर चली जाएंगी। ताता के पास फिर से, खूब भड़कीले रंगोंवाली ढेरमढेर किताबें, स्टफ टॉएज और तेज आवाज करने वाले भोंपू बजाते हवाई जहाज, मोटरकारें, ट्रेनें, चरखियां रह जाएंगी और सबके बीच अकेली ताता... या फिर आया, बुड्डी अम्मा। बुड्डा बाबा वाली।
अचानक वह वापस दादी के पास आई-
‘दादी! तुम जाना मत! प्रॉमिश!’ दादी ने अचकचाकर देखा- ताता की आंखें दुबारा पूछ रही थीं प्रॉमिश दादी?
तता के अनजाने उसकी बिल्लौरी आंखें झील सी डभाडभ थीं। इतने कीमती आंसू अरसे से किसी ने मांजी के लिए नहीं बहाए थे। उन्होंने शौनक को एक तरफ बुलाकर कहा, ‘तुम्हारा हर्ज तो होगा, पर किसी तरह इस इतवार चले जाते तो अच्छा था। संदूक और पेटियां दूसरी कोठरी में डालकर ताला लगाकर आ जाना। मैं न जा पाऊंगी।’
‘लेकिन क्यों मां? एक-दो दिनों की तो बात है?’
‘एक-दो दिनों की बात नहीं, यह मेरे और ताता के बीच के भरोसेवाली बात है। विश्वास छोटे या बड़े नहीं हुआ करते। चाहे बच्चों के हों या बूढ़ों के।’ कहीं से सुनती, भांपती ताता दौड़ी आकर दादी की गोदी में समा गई- ‘थैंक्यू दादी!’
-सूर्यबाला
मो. 09930968670