Saturday, July 20, 2024


राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित बहुप्रशंसित उपन्यास, ‘कौन देस को वासी.... वेणु की डायरी से एक मार्मिक अंश

अनकही उदासियों के साये में...

- सूर्यबाला

पूरे चार वर्ष बाद लौटा हूं अमेरिका से।
सोचा था, विशाखा दीदी और उसके ससुराल वाले खुशी से निहाल हो जाएंगे।.....
लेकिन लौटता हुआ उदास हूं मैं।
एक वही तो दीदी थी मेरी। मुझे पीठ पर घुड़ैयॉं लाद कर मेरी ‘घुड़ चढ़ी‘ कराने वाली विशाखा दीदी। चाचा, मामा, बड़े ताऊ जी, सब चिढ़ाते लेकिन उसे जरा चिढ़ नहीं होती। हमेशा अपने लाडले छुटंके भाई को गोदी में लादे, पास-पड़ोस में उसकी नुमाइश करती घूमती - सखी-सहेलियों से कहती -देखो, कैसा गोरा चिट्टा है, हम बहनों सा सांवला नहीं... थोड़ा बड़ा हुआ तो - मीनू! तुम्हारे भाई की क्या पोजीशन आई क्लास में? हमारा वेणु न फिर फर्स्ट आया - सब हंसते कि खुद तो अंग्रेजी, गणित दोनों में रपट गई... (वह तो गनीमत हुई कि अंग्रेजी में पांच और गणित में तीन ही नंबर कम हैं तो एक में ग्रेस मार्क मिल गए - एक का रि-इग्जाम हो जायेगा तो क्लास, चढ़ जाएगी) लेकिन उस सब पर सोग मनाने या झेंपने की जगह भाई के रिजल्ट की दुंदुभी बजाती फिर रही है।
रक्षाबंधन पर मां के साथ ‘मातादीन का कटरा‘ जाती और बाजार की सबसे सुनहली सलमें सितारे जड़ी राखी खरीदवा कर लौटती। मां जब तक वृंदा-वसु की ठिन-ठिन से निपटती, वह मुझे बड़े चाव से नहला, धुला तौलिये से मेरे बालों का पानी सुखा, मां के निकाले नये कपड़े पहना पाटे पे ला बिठाती... तब तक मां भी वृंदा, वसु को गोंटे, झालर वाली फ्रॉकें पहना कर आ जातीं... दीदी की आंखों में लाड़ भर गुमान होता, जैसे सब उन्हीं का किया धरा है।
बहनों को छोटी-छोटी राखियां वह इस तरह देती जैसे अपनी एक अकेले की खुशी में उन्हें भी शामिल करने का अहसान कर रही है। मां सब समझतीं, मुस्कुरा कर रह जातीं।
दीदी हमेशा साफ-सुथरी सलीके से रहती, चटर-पटर बोलती और मां के कामों में छोटी बहनों को संभालने से लेकर गैस पर रखी सब्जी चलाने तक में मदद करती। पर मुझ पर उसके एकाधिकार का दावा जग जाहिर था। बाकी के बचे समय में उधम भी खूब मचाती। जी भर कर नाचती गाती... नाते-रिश्ते, पास-पड़ोस, किसी के भी शादी ब्याह में, लोगों ने उकसाया नहीं कि बेझिझक घुंघरू बांध कर खड़ी हो जाती। बड़ी होने पर भी, किसी भी उत्सव में रौनक लगाने के लिए विशाखा की उपस्थिति अनिवार्य थी। जरा देर हुई नहीं कि लड़कियां बुलाने पहुंच जातीं।
यह... उसी दीदी के घर से दूर होते जाने की उदासी है... नहीं, उदासी के सबब और गहरे हैं शायद दीदी के घर के दरवाजों की पानी खाई दरारों... और उन्हें छुपा पाने में असमर्थ गाढ़ा कत्थई पेंट।
शायद गलियारे के अंदर घुसते ही बगलवाली कोठरी से आती अमृताजंन, बाम या मालिश के तेल वाली गंध और उसके साथ एक सार चलती दीदी की सास की अनवरत बुदबुदाती, कराहती फुंफुलाती इसमें से कुछ भी या सबकी कुछ मिली जुली आवाजें...
मेरे आने की आहट के साथ ही बाथरूम से निकल कर तेजी से सलवार-कुर्त्ते और गीले बालों में कोठरी की तरफ जाती, दीदी की, छोटी से बड़ी हो गयी ननद, पूजा... या शायद रसोंई से पतली सिंथेटिक की साड़ी में हाथ पोंछते-पोंछते मेरे सामने आकर खड़ी हो गई विशाखा दीदी ही...
अरे वेणुऽऽऽऽ! पल भर को सकुचाई, पलभर की विह्वलता - देबू! अरे देबू!.... देख मामा आया है- वेणु मामा...
दीदी शायद फिर से प्रिगनेंट थीं। थकान से पस्त भी। मेरे आने की तैयारी में मेहनत तो पड़ी ही होगी। डेढ़ दिन दीदी के घर में रहा लेकिन वह पास बैठने, बात करने से ज्यादा रसोई में भिड़ी रही। तरह-तरह के खाने, नाश्ते बनाती रही... मेरे प्रेम के मारे या खातिरदारी के नाम पर, नहीं जानता... पास बैठी भी तो बातों के नाम पर -
- ‘मैंने सोचा था भाभी जरूर आयेगी... ससुराल में भाई-भाभी के आने से मेरा भी मान बढ़ता... कि देखो मेरे भाई-भाभी मुझे कितना मानते है... यह तो गैरों वाली बात हुई न... एक ही तो भाई ठहरा तू। ... मेधा फोन भी नहीं करती... यहां इंडिया आने के बाद तो कम से कम कर ही सकती थी... तू चला जाएगा तो ये लोग मुझे ताने देने से बाज नहीं आयेंगे... अम्मा जी छोड़ने वाली नहीं... बीमारी ने भले कमजोर कर दिया है, जबान की तेजी वैसी... स्वभाव नहीं बदलता कभी किसी का...
अपराधी सा सुनता रहा।
देवेन्द्र जीजा जी, मेरे आने का पता होने पर भी काफी देर से आये। ‘जरूरी‘ काम लग आया था उन्हें। (जैसे जरूरी काम, व्यस्तताएं सिर्फ तुम बड़े आदमियों के ही नहीं होती... हमारी भी व्यस्तता है...) उसके बाद जूते निकाल कर हवाई चप्पलें पहनते हुए - और सुनाओं साले साहब... वेलकम... बहुत इंतजार कर वाया भाई। आप तो एकदम अमरीका वाले ही हो गए। - भाभी जी से तो मिलवाया ही नहीं हमें....
मैं मुस्कुराता सुनता रहा। जानता था, किसी प्रश्न को किसी उत्तर की अपेक्षा नहीं थी।
नन्हा दिवांग अवश्य मेरे आगे पीछे घूमता रहा। शायद उसे मालूम था, मैंने साथ लाये सामानों का पैकेट उसे थमाया तो दोनों हाथों में लिये फौरन अंदर भागा - तुरत फुरत जल्दी से जल्दी सबकुछ खोल कर देख लेने की उतावली। सचमुच दो मिनट बाद ही उसके लिये आई रिमोट से चलने वाली कार लेकर हाजिर - पहले आप चला कर दिखाइएं - हाथ में पकड़ बटन दबते ही कार सर्र-सर्र आगे पीछे दायें बायें घूमती मुड़ती, रास्ता बनाती चलने लगी तो पूरा घर निहाल... दिवांग को अपने हाथों में पकड़ा रिमोट कोई जादुई करिश्मा लग रहा था - ‘मामा जी! हां तो इस तरह के और भी बहुत और खिलौने मिलते होंगे न! आप अगली बार फिर कब-‘ ‘अरे चुप्प... पहले मन लगा कर पढ़ाई करो पीछे रिमोट घुमाना... बताऊं मामा को तुम्हारा छमाही वाला रिजल्ट?‘ जीजा जी घुड़के थे... दिवांग रिमोट वहीं दीवान पर फेंक, रुआंसा कमरे से निकल गया- जीजा जी ने दीदी को लक्ष्य कर कहा -‘तुमने इसे जरूरत से ज्यादा शह दे रखी है- मिजाज तो देखो, किस तरह झल्लाता चला गया... अब मुझे ही लगाम करनी पड़ेगी...
बैठक में सारे लोग मुझे फेरकर दीवान, कुर्सियों और मूढ़ों पर बैठे थे। जैसे मैं कोई अजूबा या आयोजन होऊं। बीचो-बीच भेजापोड़ा डली सेंटर टेबुल ऐडजस्ट की जा रही थी- चुन्नी संभालती पूजा रसगुल्ले, समोसे, नमकीन की प्लेटें ला ला कर सजा रही थी। बच्चे सकुचा कर लालायित दृष्टि से उन्हें देखते हुए पीछे खिसक रहे थे। मैंने एकाध को रोकना चाहा लेकिन सामने रखे समोसों और रसगुल्लों की संख्या देखकर रूक गया।
खाने नाश्ते के दौरान सबसे बड़ी समस्या मेरे पानी न भी पीने की थी। हमारी ग्लासों में डाला पानी सीधा बोरबेल का था। गला सूखने लगा तो गहरे संकोच से कहा दीदी! मैं जरा एक बोतल मिनरल वाटर लेकर आता हूं, जगह-जगह का पानी पीते-पीते गला और पेट दोनों....
- ‘अरे तो तुम क्यों जाओगे... दिवांग लाये देता है न... कौन बड़ी महंगी चीज है... अपनी भूल पर पछताती उसने फौरन दिवांग को बाहर दौड़ा दिया। महंगाई जैसे कोई फीता हो इंचटेप वाला - जब चाहा, जिंदगी का जो सा भी हिस्सा - नाप दिया। जैसे खाने पीने, पहनने ओढ़ने या फिर घूमने फिरने की, बस दो ही किस्में हीं दुनिया में, सस्ती और महंगी।‘
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खाने के बाद दीदी मेरे पास आकर बैठी थी... ‘कैसा है वेणु’-
सोचा था दीदी यहीं रूक जाएगी पर उन्होंने वाक्य आगे ले जाकर पूरा किया-
- वहां अमेरिका में....
जवाब में मेरी हंसी में भी शायद ढेर सारे फीकेपन से डाइल्यूट होती चली गयी- किसका बताऊं दीदी?
अपना या अमेरिका?...
- वहां तो बड़ा अच्छा होगा न, किसी चीज की कमी, तंगहाली नहीं- न कुटुंब परिवार की खिचखिच। यहां रहने वालों की तरह।... तुझे मेधा को लाना चाहिए था। ...थोड़ी बहुत तकलीफ सहने की आदत होनी चाहिए आदमी को। चल, तू वहां खुश है, हमारी सबसे बड़ी खुशी यही....
हां, तू पापा जी, अम्माजी और पूजा के लिए भी साड़ी, शर्ट या पंजाबी सूट ही लाया होता तो ठीक रहता... असल में अमेरिका जाने और शादी होने के बाद पहली बार ही तो आया है तू...
मेरा गला खुश्क होने लगा- फिर भी कोशिश करके कहा था- वहां से आते समय ‘वेट’ का बहुत प्रॉब्लम होता है न.... तो अपने इस्तेमाल की चीजें भी छोड़नी पड़ जाती हैं- फिर साड़ी, पंजाबी सूट वगैरह वहां मिलते भी नहीं... और मां ने तो अम्मा जी के लिए साड़ी दी है न!...
- मां भी संकोच में पड़ी होंगी... क्या कहतीं तुझसे... यह सब तो मेधा को सोचना था। अम्मा जी ने तो मेधा को देने के लिए साड़ी भी मंगवा रखी है लेकिन वह आई ही नहीं।
- मेरा खीझ कर कहने को मन हो रहा था- मैं तो आया हूं न! मुझसे तो बातें करो दीदी... लेकिन कहा सिर्फ इतना - यहां तुम लोगों को परेशानी होती मेधा के आने से... मेरी बात और है इसी से मना कर दिया-
- लो उसके आने से क्या परेशानी भला। तूने बेकार में संकोच किया- जैसे सब खाते पीते, वैसे ही वह भी। यही एक फोल्डिंग कॉट और लगा देते बस। और मैं सोच रहा था, मेधा ने हठपूर्वक मना कर मेरे ऊपर कितना उपकार किया। उस तंग बैठक में लोहे की फोल्डिंग कॉट पर मेधा के सोने और पूरा आंगन पार कर टॉयलेट जाने की कल्पना से ही मैं त्रस्त हो उठा था।
दीदी के नीति वाक्य चालू थे - आने जाने से प्यार बढ़ता है नज़दीकी बढ़ती हैं... और मैं सोच रहा था, दूर रहकर मैं दीदी के ज्यादा करीब था या पास आकर!
रात में बैठक की दीवान पर चादर बिछा दी गई। तकिये पर रंगीन गिलाफ भी। हल्की ठंड की शुरूआत। मुझे दिए गए कंबल में एक मुसमुसी गंध सी बसी है। बार-बार नाक से हटा ले रहा हूं और अंदाजने की कोशिश कर रहा हूं कि रात में बाथरूम जाना पड़े तो रास्ता सीधा है न- सामने खूंटी पर अपनी जैकेट टांग दी है जिसे पहन कर यहां आया था। अभी थोड़ी देर पहले मेरे कंधों के बहाने देवेंद्र जीजा जी ने इसे छुआ था फिर कहा था- बड़ी चिकनी, मुलायम जैकेट है साले साहब- दूर से ही अमरीका की शानमार रही है। काफी महंगी मिली होगी। कितने की वहां...
सुबह उठा। ब्रशकर मुंह धोया। उन लोगों के कहने पर भी मुझे, आंगन पार के बाथरूम तक तौलिया लपेट कर जाना अजीब लगा। जताया यही कि तबियत थकान से कुछ भारी है।
डेढ़ दिन बीतते न बीतते मैं ऊब और थकान से निढाल हो आया। गतिहीन शिथिल सा घर। एक दूसरे को ढोती जिंदगियां। बातों के छोर घूम फिर कर ग्वाले द्वारा दूध में मिलाया जाता और ज्यादा पानी, (वो भी पता नहीं कैसा, कहां का...) दिवांग की बुरी संगत, मां की बीमारी के प्रति डॉक्टर का लापरवाह रवैया और पिता का बढ़ता चिड़चिड़ापन... जैसे जिंदगी शिकायतों का कोई पुलिंदा हो जिसे उठाकर सब चलते फिरते ढोने के लिए अभिशप्त हों।
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इस घर के साथ जुड़ी मेरी स्मृतियों की पहली खेप... शादी के बाद दीदी की विदाई के साथ मैं भी भेजा गया था... यानी दुल्हन का छोटा भाई। बमुश्किल दस ग्यारह का रहा होऊंगा। झेंपू, संकोची, लजीला किशोर और इधर विवाह का रंगा पुता
(मुझे याद आया, बहुत पहले गांव वाले मिश्रा जी ने मां के कहने पर एक लोकगीत सुनाया था - यह दुःख बांधो भइया गरूई गठरिया... बहन भाई से कह रही है... मेरे दुखों की गठरी खोलना मत मेरे भाई।.... बंधी ही रहने देना-
शुभ-सगुनों से भरा पूरा घर। दो दिन पहले गड़े मंडप, अधसूखी फूल मालाओं की लड़ें... यहां वहां लगे नंदनवार सुतली से बांधी गई पतंगी कागजों की झांड़ियां... ओसारे में बिछी दरियां, जाजम, एक तरफ लुढ़के ही सही, ढोलक मजीरे... बिछी चादरों, गाव तकियों पर हंसी ठ्ठा करते लोग।... उन्हीं के बीच से मेहंदी महावर वाले पैरों से छम छम करती यहां से वहां ले जायी जाती दीदी।... जब कभी मौका मिलता अकेले में मेरे पास होते ही फुसफुसा कर पूछती तूने खाया कुछ... भूख तो नहीं लगी... लोग मुस्कुराते, मैं शरमा कर भाग लेता। वहां हर कोई मुझे हाथों हाथ ले रहा था... लहरियेदार चुनरी में रीति-नीति निपटाती उनकी सास और गुमान से भरे विवाहित दूल्हे के रोल में, बात-बात में मुझे छेड़ते और दीदी की ओर लालायित आंखों से चोरी छुपे देखते रहने वाले देवेन्द्र जीजा जी - जिसे देखो बहू के छोटे भाई की बलैया ले रहा है। विदा होते मेहमान ठहर कर मेरी मुट्ठी में भी दस पांच के नोट पकड़ाते जाते।
दीदी की मुंह दिखाई के लिये आई औरतें कभी भी ढोल मंजीरे खींच कर बैठ जातीं। बीच में घूंघट काढे़ विशाखा दीदी बैठी होती। अगल-बगल ढोलकी की थाप के साथ एक से एक मजेदार गाने। कई-कई मनचली लड़कियां लोगों के इसरार करने पर नाचने के लिये उठ खड़ी होतीं। अक्सर नृत्य करती लड़कियां को देख मुझे छोटी विशाखा दीदी याद आ जातीं।
पिछवाड़े की बगीची में खूब सारे पके-पके जामुन गिरे होते। मैं और दूसरे मेहमान बच्चे बीन बीन कर इकट्ठे करते। अम्मा जी के कहने पर फालसे तोड़ कर लाते... वे उन्हें मसल कर बैगनी रंग का खट्मीठा शर्बत बनवाती। इतनी रंगबिरंगी गतिविधियों वाली स्मृतियों से भरापूरा वह घर, अब कुछ इतना सुस्त निकम्मा सा जैसे समय उसे बेगैरती से ढोने के लिए अभिशप्त हो। - कहीं यही तो मेरी उदासी की वजह नहीं?... शायद सच यह है कि मैं उदासी के असली कारण छुपा, मन गढ़ंत बहाने तलाश रहा हूं...
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बैठक से निकलते हुए मैंने खूंटी पर टंगी अपनी जैकेट उतारी और तह लगा कर जीजा जी को थमा दी- मेरी ज़िद समझिए, रख लीजिए। नई ही है, सिर्फ एक-दो बार की पहनी- ऊपर से नाना करते जीजा जी का चेहरा उत्फुल्त था। आते समय, मैंने दीदी के पैर छुए तो मुझे खींचकर बहुत रोई। खुद मुझे न जाने क्या हो गया। पैर वहीं जमे... रोती हुई दीदी को छोड़ ही नहीं पा रहे थे। एक क्षण पहले और एक क्षण बाद के मुझमें कितना अंतर था। दिवांग और जीजा जी, साथ-साथ चौराहे तक पहुंचाने आये तो सामने केमिस्ट की दुकान देख जल्दी से एक हॉर्लिक्स, एक कॉम्प्लॉन खरीद कर चुनमुन को पकड़ा दिया। पकड़ा कर आधा, हल्का महसूस किया।
कुल पन्द्रह मिनट बाद, रिक्शे में स्टेशन जाते हुए लगा, बरसों बाद खुली हवा में सांस ले रहा हूं। दीदी को याद कर आंखें दुबारा भर आईं... तत्काल एक विद्रूप भी उपजा- खुलेपन में स्नेह-प्यार महसूस करने की ज्यादा गुंजाइश होती है।... घुटन में तो आदमी अपने से बाहर निकल ही नहीं पाता। अब लग रहा है, एक पछतावा सा... जिसे मैं शिकायतों का पुलिंदा समझ रहा था, ऊब रहा था वे दीदी के मन का वह सारा दुःख था जो वे मुझसे ही शेयर कर सकतीं थी। यही तो सबसे बड़ा लाभ है, अपनों का... लोग रोने के लिये कंधे इसीलिए तो ढूढ़ते हैं। अपनी सारी शिकायतें, गुस्सा और उलाहना दीदी मुझसे नही तो किससे कहतीं...
अब मैं खुद उस ऊब से बाहर था और तटस्थ भाव से एक दृश्य की तरह देख रहा था - अधखिचड़ी बालों के बीचो बीच, लंबी सिंदूरी मांग और अठन्नी भर की लाल सुर्ख बिंदी लगाए अम्मा जी... जूते की धूल ठोंक कर हवाई चप्पलें पहनते देवेन्द्र जीजा जी - खूंटी से लुंगी उतारते उनके पिता और महंगे ब्रांडों की सस्ती नकल वाली जीन्स, शर्ट वाला दिवांग और रोती हुई -- धीरे धीरे दरवाजे की ओट होती गर्भवती दीदी!....

Saturday, September 17, 2016


माय नेम इश ताता

- सूर्यबाला

तोतली ताता असल में सुजाता है।
‘ताता’ तो उसने खुद अपने आपको तुतलाए बोलों में प्रचारित कर रखा है। हुआ यह कि सवा-डेढ़ की होने के साथ ही स्कूल में उसके दाखिले को लेकर दौड़-भाग करती नीना उसे उठाते-बैठाते, बाल काढ़ते, जूते पहनाते लगातार इंटरव्यू के लिए रटाती रहती थी।
‘जब मैडम पूछेगी, व्हाट इज योर नेम चाइल्ड? तो क्या कहेगी मेरी बेबी?’ ‘ताता’-टप-टप दो तोतले ता पकी जामुन से टपक पड़ते- ‘माय नेम इश ताता...’
थकान से निढाल नीना भरपूर राहत से भर जाती। एक बार, बस एक बार ताता को शहर के बेस्ट ‘प्रेप’ में एडमीशन मिल जाता तो वह अपने ऑफिस की मोना दीवान और सपना मजुमदार को दिखा देती कि हारी हुई पारी को जीत में बदल देना भी वह जानती है।
लेकिन इंटरव्यू वाले दिन, ऐन वक्त पर ताता को न जाने क्या हो गया। पहले तो वह सोती रही थी, फिर जगी तो अचानक चिड़चिड़ी हो उठी। नीना ने उसका मूड ठीक करने के लिए उसे चॉकलेट, पेप्सी सब लाकर दिए, लेकिन इंटरव्यू वाली मैडम के सामने उसने गरदन जो लटकाई, सो लटकाई, सो लटकाई। चेहरा मनहूस घोंघे सा सिकोड़ा। मजाल है जो नीना या स्कूलवाली मैडम ताता की गरदन और चेहरा रत्ती भर भी दाएं-बाएं या ऊपर-नीचे हिला-डुला सकें। नीना बेचैन हो पसीने-पसीने हो उठी। कितनी बार दुलराया, फुसलाया, बोलो बेबी, बोलो न, बताओ मैडम को- व्हाट इज योर नेम, लेकिन ताता टस-से-मस न हुई।
अपना नाम बताना तो दूर, पूछे गए किसी भी सवाल का जवाब ही नहीं दिया। मैडम ने दो-चार खिलौने, डॉल्स दिखाईं। क्या ताता के पास डॉल है! लेकिन ताता का लटका चेहरा सुन्न सपाट। जैसे वह न कुछ सुन रही हो, न समझ रही हो। पूरी तरह प्रतिक्रियाविहीन।
चेहरे पर छाई खिसियाहट, परेशानी और खीज छुपाती नीना ने मैडम को समझाने की कोशिश की, लेकिन जैसी उम्मीद थी, मैडम ने बड़े तरीके से मुसकराकर कहीं और ट्राइ करने का मशविरा दे दिया।
नीना जैसे तमाचा खाकर लौटी। ताता को धप्प से सोफे पर डाला और रूआंसी होकर फट पड़ी शौनक के सामने। ‘ऐसी मनहूस, कद्दू सी सूरत बनाए बैठी रही पूरे पौने घंटे, जैसे कसम खाई हो एक शब्द भी न बोलने की- एडमीशन क्या खाक होता।’
शौनक हैरान- ‘क्या कहती हो? घर में तो चीख-चीखकर बात-बेबात ‘माय ने इश ताता, माय नेम इश ताता’ की बकबक से जीना दुश्वार किए रहती थी। सुनते-सुनते कान पक जाते, कितनी बार चीखकर चुप कराना पड़ता- शटअप! सुन लिया, योर नेम इज ताता, ओ.के.! चलो अब जाकर अपना नया वाला एरोप्लेन चलाओ, नही ंतो ब्लॉक्स बनाओ। मुझे काम करने दो, आउट।’
लेकिन ताता पर तो जैसे तोतारटंत का भूत सवार होता, विशेषकर शौनक के ऑफिस से लौटने पर। दिन भर का रटा-रटाया बीसियों बार दोहराती। यहां तक कि एक दिन ऑफिस से भन्नाए लौटे शौनक का रोकते-न रोकते भरपूर चांटा पड़ गया था ताता के गाल पर।
दर्द से बिलबिलाई ताता जोर से रो पड़ी, लेकिन हिलक-हिलक के सिसकारी भरती वह ज्यादा हकबकी, हैरान इसलिए थी कि जो कुछ उसे दिन भर रटाया जाता, बार-बार सुनाने को कहा जाता, सुनकर खुश हुआ जाता, उसे ही जब उसने पापा को खुश करने के लिए बार-बार सुनाना चाहा तो उसे चांटा मारकर अपमानित क्यों किया गया?
उस दिन शौनक बाद में पछताया भी, फिर ताता को बाजार ले जाकर बड़ी-सी एक चॉकलेट और नई डॉल खरीद लाया था। खरीदकर हलका हो लिया था। पछतावा काई सा खुरच छंट गया था। लेकिन इस वक्त नीना को दयनीय रूआंसी शक्ल देखकर वह वापस गुस्से से बौखला उठा-
‘देना था वहीं जोर का एक चांटा। बोल आपसे आप फूट जाते। मैंने पहले भी हजार बार कहा है न। अब भुगतो अपना किया। मैं होता न, तो....’
‘क्या कर लेते तुम, जरा सुनूं तो?’ शौनक की सहानुभूति प्रदर्शन की तर्ज पर शेखी बघारने वाला लहजा नीना को तमतमा गया- ‘शादी के बाद से अब तक अपना किया ही तो भुगत रही हूं। वहां चांटा जड़ देने से एडमीशन हो जाता क्या? उलटे तमाशा जरूर खड़ा हो जाता। हर बात में मैं होता तो, मैं होता तो... मैं पूछती हूं, क्यों नहीं होते, क्यों नहीं हुआ करते ऐसे मौकों पर तुम? मुझे सब मालूम है। हमेशा ऐसे मौकों पर ऑफिस की इमरजेंसी मीटिंग, वर्कशॉप आदि के नाम पर झूठ-सच बोल, अपना पिंड छुड़ाकर मुझे आगे कर देते हो, जिससे बाद में जरा भी ऊंचा-नीचा हो तो तुम अकड़कर अपना सुरक्षित वाक्य बोल सको- मैं होता तो... अब मुझे समझ में आया, ताता में ये आदत आई कहां से... ऐन मौके पर ठीक अपने पिता की तरह ही वह मौका ताककर दबोचती है।’
‘देखो अब अपनी असफलता की तिलमिलाहट ख्वाहमखाह दूसरों पर उतारने की कोशिश तो तुम करो मत।’
शौनक का स्वर कड़ा हो गया। नीना दुगुने वेग से चीखी, ‘हम दोनों की जिंदगी में सिर्फ मेरे ‘फेल्योर’ की थिगलियां और तुम्हारे ‘एचीवमेंट्स के सितारे टॉकते जाना तुम्हारी हमेशा की खूबी रही है, साजिश भी कि दूसरों के सामने....’
‘नीना प्लीऽऽज शटअप...’
नीना भी दांत पीसकर चीखी- ‘यू शटअप’- यहां तक कि शौनक का उठा हुआ हाथ नीना ने दांत पीसते हुए बीच में ही रोककर मरोड़ दिया।
और अचानक दोनों की दृष्टि दूर खड़ी, सहमकर पीली पड़ती ताता पर गई।
‘नो चाइल्ड नो।’ नीना लपकी।
‘आया!’ शौनक दहाड़ा- ‘बेबी को ले जाओ।’
आया, जिसका पूरा ध्यान अभी तक शौनक और नीना द्वारा दी जाने वाली अंग्रेजी की गालियों पर था और जो बड़े मनोयोग से रस ले-लेकर यह नाटक देख रही थी, अचानक चौंकी और झपाटे से ताता को पुचकारती अंदर चली गई।
शौनक आपे में लौटा। सोफे पर सिसकियों का ढेर बनी नीना से मुखातिब हुआ- ‘सॉरी! जानती तो हो, ऑफिस में आजकल कितना टेंशन है। दरअसल, मैं भी घर तभी ही लौटा था।’
‘और मैं? मैं तो ऑफिस पिकनिक मनाने के लिए जाती हूं न! तुम्हें मालूम है, मनचंद आजकल जानबूझकर मुझे सुनाते हुए मोना दीवान की डिजाइनों की ज्यादा तारीफ करते हैं। इधर ली गई छुट्टियों की वजह से वे मुझे शगल के लिए ऑफिस आने वाले डिजाइनर समझते हैं। ऊपर से हर रोज आया की धमकियां, ताता का एडमीशन, मोना दीवान का टेंशन, उधर ऑफिस, इधर तुम, घर, आया, ताता, फोन, बिजली, गैस, लाइसेंस, कनेक्शन, फंगस, काक्रोचेज और....‘
और कहते-कहते नीना की पीठ पर हिचकी का एक जोरदार हिचकोला उठा। हिचकोला सही मौके पर आया। शौनक पूरी तरह पिघल गया। (वरना सिसकी फूटने में एक मिनट) की भी देर हुई होती तो नीना की फेंक ईंटों के जवाब में दर्जनों पत्थर इधर भी तैयार थे।) क्योंकि ताता को एडमीशन के लिए ट्रेनिंग देने का छोड़कर तो बाकी सारे काम फिफ्टी-फिफ्टी के अनुबंध पर ही चल रहे थे। अंदर-अंदर शौनक अब भी यही सोच रहा था कि किसी तरह नीना के गुस्से की यह बला टाली जाए, किसी भी शर्त पर। खैर, वैसे भी पिछले पूरे छह महीनों से नीना ताता को दाखिले के लिए जी-जान से तैयार करा रही थी, इसमें जरा भी शक नहीं।
शौनक और नरम पड़ा- ’चलो, तुम्हें लिज में पिज्जा खिला के लाता हूं। मेरा भी लंच आज बड़ा बोर था।’
नीना कोहनी टिकाए बैठी रही, वह अब भी हताशा से उबर नहीं पा रही थी। ‘मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा जैसे, बार-बार यही लग रहा है, काश! इसवाले स्कूल में एडमीशन हो गया होता, जरा सी भी बोल गई होती, क्योंकि प्रिंसिपल तो मुझसे बहुत ही इंप्रेस्ड थी।’ (शौनक मन-मन मुसकराया बेशक, बाकायदे, ‘पार्लर’ होकर जो एडमीशन दिलाने गई थी ताता को।)
‘छोड़ो भी, और भी बहुत से स्कूल हैं। छह महीने बाद सही।’
‘पर इस स्कूल की बात ही और थी, और फिर लोगों से क्या कहेंगे? तुम्हारे-मेरे इतने कुलीग्स, दोस्त पहचान वाले कि ताता इंटरव्यू में फेल-एडमीशन नहीं हुआ।’
‘हां-हां, नहीं हुआ- बस कह देंगे लोगों से। जो सोचना हो, सोच लें, करना हों कर लें। बस चलो उठो। हम दोनों को चेंज की सख्त जरूरत है। कम्मॉन...’ शौनक ने प्यार से कंधे पर थपकी दी। ‘आया के जाने के टाइम से पहले लौटना भी तो है।’
नीना ने दीवान से चुन्नी उठाकर गले में फंसाई। होठों पर लिपस्टिक घुमाई और पैरों में सैंडल डालती निकल गई।
दोनों चले गए तो आया न चैन की सांस ली। उसने सहमी, हदसी ताता को उसके खिलौनों, रंग-बिरंगी किताबों और कलरपेनों के बीच सा ला बिठाया। ‘हां, अब अच्छे से खेलने का, चलो अपना किचन सेट से मुझे चा बना के पिलाओ तो।’
और आया आधी पढ़ी ‘तिलिस्मी कोठी’ खोलकर बैठ गई।
ताता ने जोर से पैर पटका। ‘नईं, मैं अपने कप में तुमको चाय नईं देती।’
‘ओ.के. बाबा,’ आया बिलकुल डिर्स्टब होना नहीं चाहती थी- ‘मत दो बाबा, खेल खेलो अपना, देखा कितना अच्छा-अच्छा बुक्स छोटा-बड़ा पप्पी, एलीफैंट-डॉल...।’
‘नई, मैं कुच्छ नईं खेलती- तुम मुझको श्नोवाइट की इशटोरी सुनाओ।’ आया फिर बिदक गई- ‘इशटोरी तो तुमको कित्ती बार सुनाया है, बेबी। वोई-वोई बात। अब्बी बस पिक्चर देखने का। ये देखो इशनोवाइट और ये देखो उसको जहर का एप्पल खिलाने वाली रानी- बुड्ढ़ी अम्मा-बस?’
तता अचानक रंगीन किताब पर बने चित्र की फ्रुकेड क्वीन, सौतेली रानी के बिचके होंठ, मिचमिची आंखें और सिकुड़े, बिदुरे चेहरे को देखकर चीखी- ‘आया! तुम बुड्डी अम्मा हो... हो न!’
आया सिर से पांव तक अवहेलित हो जल उठी।
‘बैड गल्ल बेबी। जाओ, अब मैं तुम्हें दुद्धू नईं दूंगी। बोलो, आया अच्छी।’
तता ने अंदाजा लगाया, आया चिढ़ रही है। उसे मजा आया- ‘नई तुम दंदी। तुम बुड्डी अम्मा।’
अपमान से सुलगकर आया का चेहरा और ज्यादा सिकुड़ता जा रहा था। बुरी तरह मुंह बिदोरकर उसने कहा ‘गंदी बेबी।’ लेकिन उसे जल्दी-से-जल्दी ताता की जबान पर आया वह शब्द भुलवाना भी था, वरना ताता का क्या ठिकाना, चार आए-गए के सामने कभी भी बुड्डी अम्मा उचार जाए।
‘चलो, दुद्धू पीओ और सो जाओ- तुम्हारा मिजाज ठिकाने नईं है। जब पापा का जोर का थप्पड़ पड़ेगा न, तब्बी तुम्हारा अक्कल....।’
स्ुनने के साथ ही ताता को पापा, मम्मी, उनका लड़ना, बिफरना और फिर कंधे सहलाते, गले में चुन्नी डाले, साथ-साथ बाहर निकलना याद हो आया।
अचानक ही वह जैसे असहाय हो आई। उसने हथियार डाल दिए और चुपचाप आया की थमाई दूध की बोतल थाम ली। लेकिन दूध फीका, ठंडा और बेस्वाद लगा, पर सहमी ताता बेमन से बोतल मुंह से लगाए रही।
बोतल मुंह में दबाए ताता की उदास आंखें अपने चारों तरफ टकटोर रही थीं। एक-से-एक महंगी मोटरकारें, एरोप्लेन, हेली कॉप्टर, बिल्डिंग सेट, किचेन सेट, डॉल्स, स्टफ टॉएज पूसीकैट जिर्राफ, छोटे-बड़े टेडीबियर, और भी न जाने क्या-क्या, फर्श पर चारों तरफ रंग-बिरंगी किताबें, चरखी, फिरकनी, ब्लॉक्स....
और इन सबके बीच ताता और आया, आया और ताता। पैराग्राफ समाप्त। अचानक ताता की आंखें एक डॉल पर ठिठकर सहम गईं। यह वही डॉल थी जो पापा ने उसे चांटा मारने के बाद खरीदी थी।
अगले हफ्ते अचानक आया छोड़ गई। नीना सनाका खा गई। तैश में आकर बिफरी- ‘ऐसे कैसे छोड़ सकते हैं हम तुम्हें? तुम्हें मालूम है मुझे ऑफिस जाना होता है?’
‘आपने तो बोला था, बेबी का एडमीसन हो जाएगा।’
‘आया! तुम्हें तो अच्छी तरह मालूम है कि बेबी का एडमीशन अभी नहीं  हो पाया।’
‘लेकिन हम लोगों को भी अच्छा जॉब रोज-रोज हाथ पे रका तो नहीं रैता न, मेम साब!’ आया ने नक्शा झाड़ा।
‘तो तुम अभी छोड़ना चाहती हो? ‘नीना दनदनाती हुई अंदर गई और पगार के नोट उसके सामने पटककर चीखी- ‘ओ.के., गेट लॉस्ट।’
आया भुनभुनाती हुई सलाम मारती निकल गई थी।
ताता ने पूरा दम लगाकर जोर से तुतलाती- ‘गेत आउत’, फिर सहमी सी सोफे पर निढाल ढिलकती मम्मी को देखकर दुबारा बुदबुदाई- ‘आया बुड्डी अम्मा, दंदी आया...। वह मम्मी की मदद करना चाहती थी, पर कैसे करे? कुछ न सूझा तो वह सोफे पर निढाल पड़ी नीना से चिपक गई। नन्हे नन्हे लटपटे बाल गालों पर झूल आए। नीना चौंकी। वह बेतहाशा ताता को चूमने लगी। आज बहुत दिनों बाद मम्मी ने उसे इतना प्यार किया था। ताता यह भी धुंधला सा समझ रही थी कि मम्मी कहीं उसे लेकर परेशान है। लेकिन ताता आखिर मदद करेगी तो कैसे? उसकी भोली आंखें जैसे नीना से पूछ रही थीं - ‘मेरी गलती क्या है?’
हां, गलती कहीं नहीं थी। किसी तरह की नहीं। नींव तो बहुत सोच समझकर रखी थी शौनक और नीना ने। अपने वैवाहिक जीवन की एक-एक ईंट नाप-जोखकर, पूरी सतर्कता और होशियारी से दोनों के दोनों पढ़े-लिखे नौकरी-पेशा, समझदार और मैच्योर। शादी का मतलब है, किसी का किसी पर दबाव या अहसान बिलकुल नहीं, इसलिए शुरूआत से ही सारे हिसाब-किताब बराबर-बराबर। अपने-अपने शौक, सहूलियतें, कॅरियर और घर-बाहर काम के घंटों का भी बराबर विभाजन और पैसों की व्यवस्था भी अपने तरीके से। एक-दूसरे की सीमा में हस्तक्षेप बिलकुल नहीं।
इस सूझबूझ पर दोनों ने अंदर-अंदर अपनी-अपनी पीठ ठोंकी थी। शादी से पहले जिस तरह रेस्टोरेंटों और कॉफी हाउसों से कई-कई मर्तबा इकट्ठे होकर दोनों ने आगामी जीवन के सारे मुद्दों हर कोण से डिस्कस किए थे, कोई तीसरा सुनता तो यही सोचता कि यह किसी विवाह या पश्चिम जैसे मधुर रिश्तों के बजाय किसी बराबरी के हकदारी दावेवाला कानूनी इकरारनामा है।
अपनी तरफ से नीना ने बड़ी बारीकी से बस एक मुद्दा और जोड़ा था कि पति-पत्नी ही नहीं, किसी अन्य तीसरे की दखलअंदाजी भी दोनों के बीच गलतफहमी का कारण बन सकती है। समझदार को इशारा काफी। शौनक ने फौरन नीना को यह कहकर निशि्ंचत कर दिया था कि शुरू से कस्बे में रह आई मां ने हमेशा शौनक को शहर के अच्छे स्कूलों में पढ़ाया है। और खुद कस्बे के उसी मकान में, ऊपर-नीचे दो-चार कोठरियां बनवा, उन्हें किराए पर उठा अब तक सारा जीवन एकादशी, प्रदोष, जन्माष्टमी, रामनवमी तथा गबन, गोदान और साकेत की सोहबत में काट ले गई हैं। वैसे भी मां की प्रकृति और जीवन-शैली कभी उन दोनों के बीच हस्तक्षेप करने वाली या बाधक नहीं बनेगी।
लेकिन इतना सोच-समझकर बिछाए गए सारे समीकरण ताता के आने के साथ ही लड़खड़ा गए थे। हालांकि ताता का आगमन कोई दुर्घटना नहीं थी। साल-डेढ़ साल में आखिर एकाध बच्चे का लाना तो तयशुदा था ही। और लाएंगे तो कमर कस के पूरी तैयारी और समझदारी के साथ।
लिहाजा नीना ने पूरे नौ महीने किताबों पर किताबें पढ़ीं। मैगजींस पर मैगजींस। उनमें लिखी सारी हिदायतें पालीं। इतने से इतने महीने बच्चे का इतना विकास, इतना ज्ञान, ये लक्षण, ये सावधानियां, पूरा बाल मनोविज्ञान और बच्चे को पालने के तरीके के कंठस्थ।
 शौनक भी प्राउड फादरहुड का खिताब हासिल करने के लिए सोत्साह जुट गया। बेबी लोशन, क्रीम पाउडर, झूले और कांट से लेकर टब, बच्चा गाड़ी तक-बाप रे! सेचा नहीं था कि एक बच्चे की अगवानी इतनी खर्चीली होगी। यह दोनों ने एक-दूसरे से छिपकर मन में सोचा। ऊपर-ऊपर तो एक-दूसरे को समझाते हुए यही कि प्राउड पेरेंटहुड से गुजरने की थ्रिल के एवज में इतना भी नहीं करेंगे दोनों??
हां, बच्चा भी फिफ्टी-फिफ्टी हम दोनों के खाते में जाएगा। पूरा डिसिप्लिन, पूरी हाइजैनिक कंडीशन। डिटॉल में नैपी धोएंगे। इंफेक्शन से बचाएंगे। टाइम से दूध। टाइम से नींद। हमारा बच्चा टाइम से सोएगा, टाइम से जागेगा। हम बारी-बारी से उसकी देखभाल कर लेंगे, दुलार-पुचकार लेंगे। पूरी सुख-सुविधाओं से बच्चे को पालेंगे। स्वस्थ पोषण और नए अच्छे स्कूल में एडमीशन यानी सवा-डेढ़ साल से इंटरव्यू की तैयारी शुरू- माय ने इश ताता....।
लेकिन पैदाइश के साथ ही ताता ने किताबों की एक न मानी। किताबों में नीना ने जो पढ़ रखा था, ताता उसका उलटा करती । वह तीन-चार घंटों के बदले पौने घंटे में ही जग जाती। एक बोतल दूध खत्म करने के बीच तीन बार सोती। भूखी होने पर भी एकाध औंस दूध पेट में जाते ही बोतल की निपल से मुंह हटाकर बार-बार हंस पड़ती। शाम भर सोती और सुबह चार बजे से किलकारी मार-मार के हाथ-पैर फेंकना शुरू कर देती। प्राउड फादर, प्राउड मदर निहाल हो लेते, लेकिन दोनों के ऑफिसों की फाइलें उन्हें आतंकित करती होतीं। नीना को दर्जन भर शर्ट की डिजाइनें पूरी करनी होतीं। शौनक को अगले पूरे साल के बजट का एस्टीमेट। आंखें थकान और बोझ से निढाल। इस वक्त, हां इस वक्त तो ताता को सोना ही चाहिए। आखिर इस वक्त वे उसे कैसे वक्त दे सकते हैं?
लेकिन किलकारी मारती ताता को क्या मालूम कि उसके पापा के इस नए विभागवाला बॉस किसी-न-किसी बहाने शौनक में चूकें निकालने की तरकीबें ढूंढ़ता रहता है, जिससे वह उसकी जगह अपने आदमियों की भरती कर सके। ताता को यह भी नहीं पता कि उसे पुचकारने, दुलराने के बीच भी उसकी मम्मी नीना के दिल पर अचानक सनाका सा बैठ जातमा है कि कहीं इन छह महीनों की मैटरनिटी लीव का फायदा उठाकर साहनी ने मोना दीवान को डिपार्टमेंट हेड का तमगा सौंप दिया तो? तो क्या कर लेगी वह?
ताता यह भी नहीं जानती कि अभ कुछ पांच महीने की भी नहीं हुई वह कि उसकी मां पर ऑफिस जॉइन करने का ‘टेंशन’ और डिप्रेशन हावी होने लगा। और धक्के दे-देकर निकाले गए खयालों के बीच भी एक मुंहफट सवाल उसे परेशान करता ही रहा कि कहीं ताता को इस दुनिया में लाकर उसने गलती तो नहीं की? शाही बच्चे सबकुछ अपनी-अपनी जगह ठीक होने पर भी यह छूटा हुआ समय, यह गंवाया गया अवसर फिर कभी हाथ आएगा भी या नहीं?
इतना ही नहीं, यह सब सोचते हुए खुद की नजरों में जलील भी होना कि छिह! क्या मेरी परिभाषा है, प्राउड मदर की? फिर एक विद्रोही आक्रोश भी कि लेकिन प्राउड मदर ही क्यों लॉस में रहे? प्राउड फादर क्यों नहीं?
इसलिए ठोस वास्तविकता की जमीन पर आया तलाश ली गई थी।
आया से पहले एक प्रस्ताव ‘मां’ के पक्ष में भी उठा था और पूरी तरह पूर्वग्रह रहित होकर विचार-विमर्श किया गया था। पहले से तय करके कि दोनों में कोई किसी की बात का बुरा नहीं मानेगा। फैक्ट इज फैक्ट। आया को नीना निर्देश दे सकती है। मां को नहीं। लेकिन मां चौबीसों घंटे रहेगी; पर फिर थोड़ा-बहुत खयाल रखना ही होगा। आया पेड सर्वेंट होगी, पगार ज्यादा लेकिन खाना अपना खुद लाएगी। मां पेड न होने पर भी खाना-पीना तो सारा अपने जैसा ही। बल्कि वे तो शुरू से रात में सोने से पहले एक गिलास दूध भी पीती आई हैं।
बड़ी देर तक आया और मां तराजू के दोनों पलड़ों पर ऊपर-नीचे होती रहीं, अंत में सारे मोल-भावों के बाद बोली आया के पक्ष में गिरी। पूरे डेढ़ साल गाड़ी अटक-अटककर चली भी, लेकिन अब?
आया छोड़ गई थी और नीना की दहशतजदा आंखों के सामने अपना सजा-सजाया  फ्लैट, परदे, दीवान और गुलदस्ते सबकुछ एक विकराल ब्लैक होल में तब्दील होते जा रहे थे।
अगला पूरा महीना जबरदस्त गहमागहमी का था। शौनक को शायद ट्रेनिंग के सिलसिले में जर्मनी जाने का चांस मिले और नीना पर खुद बाहर से मिले ऑर्डर की भरपाई करने की जिम्मेदारी।
रातोरात कहां से आया तलाश लाई जाए, वह भी चार-छह महीने के बच्चे के लिए नहीं, अच्छी-खासी बोलती-समझती ताता के लिए?
इसलिए अब बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी। तर्क-वितर्क के तराजू-बटखरे एक किनारे रखे, शनिवार की आधी छुट्टी पर नीना ने ताता की बेबी मीटिंग की और शौनक इतवार की शाम मां को उनकी छोटी अटैची के साथ लिये लौटा।
‘ताता! देखो बेटे, कौन आया है?’ यह प्यार और आदर से ज्यादा, जल्दी से जल्दी ताता को हिला-मिला देने की चिंतावश ही ज्यादा कहा गया था। ‘बुड्ढी अम्मा।’ ताता ने मटककर अरूचि से कहा और इठलाकर अपना हवाई जहाज जमीन पर तेज आवाज के साथ चलाने लगी।
‘बैड गर्ल।’ शौनक अपने आपको अपमानित महसूस कर चीखा। उन दोनों के डिसिप्लिंड ट्रेनिंग की धज्जियां उड़ा दी थीं ताता ने, मां के सामने।
‘यू बैड ब्वॉय...’
‘शटअप!’
‘यू शत्तप’
‘नई बुड्डी अम्मा, ’ नीना ने बात संभाली- ‘नहीं बेटे, दादी...’
मं ने बौखलाते-खिसियाते बेटे-बहू को संभाला। ‘कह लेने दो न! अड़ोगे तो बच्चा भी अड़ेगा। मैं कोई बाहर की हूं?’
तेतली होने पर भी ताता इतनी समझती थी कि ये तो उससे चिढ़ने-मुरझाने के बदले उसका मटकना देकर उलटे निहाल हो रही हैं। फटकार भी उलटे मम्मी-पापा को पड़ गई।
नीना जब अंदर गई तो ताता चुपके से पास आई और गोल-गोल आंखें झपकाकर धीमे से पूछ गई- ‘तुम दादी ओ (हो)?’
दादी को शरारत सूझी- ‘तुम ताता हो?’
ताता चौकी। फिर इठलाकर तुतलाई- ‘माय नेम इश ताता-’
दादी बोली- माय नेम इश दादी- ताता की दादी।’
ताता किलककर हंस दी। फिर वही शान और रोब से अपने एक-एक खिलौने ला-लाकर दिखाने लगी- ‘तुमने मेला एलोप्लेन देका ऐ? ... मैं लिंडा डॉल के लिए चाय बनाती हूं। तुम भी पीओगी? लो, नई अबी नईं पीना- गनम है- देका? तुमको इशटोरी आती है? मैं दो-दो टेडीबियर के साथ सोती हूं।’
सुबह नीना को ताता को इकझोरकर जल्दी-जल्दी उठाने की जरूरत नहीं पड़ी। तता जब तक आंखें मलती उठी, नीना, शौनक बाऽऽय करते जल्दी-जल्दी ऑफिस के लिए निकल रहे थे।
दादी दरवाजा बंद कर लौट रही थीं। ताता को दादी बड़ी अजूबा लगीं। न यह आया थी, न यह आंटी। एदल आरेंज वाली ताई भी नहीं। और न कपड़े धोकर पौंछा मारने वाली शेवंती।
उसने दादी के पास आकर पूछा-
‘दादी! तुम कौन ओ?’
थ्नहाल दादी ने उसे अपनी गोदी में समेटकर कहा, ’अपनी ताता की दादी और तुम्हारे पापा की मम्मी।’
‘तुम मम्मी ओ?.... फिल तुम ऑफिस चली जाओगी?’
‘नहीं, मैं नहीं जाऊंगी ऑफिस।’
‘क्यों? मम्मी लोग तो सारे दिन ऑफिस रैती हैं।’
‘हां, लेकिन दादी लोग ऑफिस नहीं जातीं।’
‘फिल तुम घम्में (घर में) क्या कलोगी?’
‘मैं ताता के संग खेलूंगी?’
ताता को लगा, दादी झूठ बोल रही है। आया की तरह, पापा की तरह, मम्मी की तरह। ताता तो अपने खिलौने के साथ खेलती है। आया जादुई कालीन पढ़नी है। मम्मी-पापा छुट्टी के दिन भी सुबह से ही सारे दिन क्या-क्या सफाई, क्या-क्या मरम्मत, उठाना, लाना, धरना, समेटना। दर्जनों लोगों को कर्टसी कॉल हाअअय, हाउ स्वीट, हाउ नाइस, हो-हो, ही-ही और मुंह बनाते हुए निहायत नाटकीयता से फोन कट करना। इस तरह छुट्टी के एक पूरे दिन का रस नीबू की तरह निचोड़ डालना।
लेकिन दादी तो सचमुच कहीं नहीं गईं। ताता उनके पीछे-पीछे कौतुक से घूमती रही। दादी ने अपनी अटैची खोली।
‘ये तुमाले कपले हैं? बश इतने?’
‘हां!’ दादी हंसी।
‘दादी! तुम पुअल हो? पुअल बच्चे दंदे होते हैं। वे सड़क पे खेलते हैं। दंदी चीज खाते हैं, इशी शे कार के नीचे दब जाते हैं.... ऐक्शीडेंट।’
दादी ने अटैची से पूजा की घंटी, पीतल की आरती, अगरबत्तीदान, राम कृष्ण के चित्र और छोटी सी रामायण निकाली।
‘ये तुम्हाली बुक है?’
‘हां!’
‘तुम्हाले पास अच्छी बुक्श नईं हैं? मेले पास बल रेड और येल्लो बुक्स हैं।’ फिर एकदम तमककर बोली, ‘मैं तुमें अपनी बुक्स नईं दूंगी, तुम दंदी कर दोगी।’
दादी घंटी निकालकर रखने लगीं तो वह टुन्न से बोल गई। ताता को ये आाज सारे खिलौनों से न्यारी लगी। उसने ललचाई नजरों से घंटी की तरफ देखा।
‘ये तुमाली है? तुम इशे बजाती हो?’
दादी हंस दीं- ‘तुम बाजाओगी
 लो बजाओ। पूजा करते समय हम दोनों बजाएंगे।’
ताता थोड़ा हिचकी, फिर खुश होकर घंटी बजाने लगी। दादी ने भगवान जी के चित्र एक छोटी चौकी पर सजा दिए। रूई की बत्ती बनाई और पीतल के दीपदान में तेल में भीगी बत्ती जलाई। फिर ताता के हाथ में दीपदान पकड़ाए-पकड़ाए गोल-गोल घुमाकर आरती करवाई। ताता ने एक बार दादी को गाते सुना, फिर खूब ऊंची आवाज में गलत ही तुतलाती गाती रही। और लगातार टुनुन-टुनुन घंटी बजाती रही।
चित्र में भगवान के ‘एवमस्तु’ की मुद्रा देख ताता ने पूछा, ‘दादी, भगवान्जी क्या कैसे हैं?’
‘कहते हैं, ताता बड़ी गुड गल्ल है।’
‘औल ये वाले भगवानजी क्या कैते हैं?’
‘कैते हैं, ताता खूब बड़ी सी हो जाए?’
तता की आंखें खुशी से हुलसीं कि एकाएक झप्प से बुझ गईं- ‘नईं, मैं बली होकल ऑफिस नहीं जाऊंगी।’
छादी भौंचक्क! ‘ठीक है, लेकिन क्यों नहीं जाओगी?’
‘बताऊं? ऑफिश बहुत दंदा होता है। वो मम्मी, पापा से झगड़ा करता है।’ फिर दादी के कानों के पास आकर धीरे से बोली, ‘और ऑफिश के पाश एक बश्टर्ड बॉश होता है।’
दादी सकपका गईं, ‘तुमसे किसने कहा, बच्चे?’
ताता ऐंठी- ‘नो बडी... आय नो।’
दरवाजे की घंटी बजी।
ताता चीखी- ‘दादी, मत खोलो। रूपा आंटी होंगी। वो बौत ‘बोल‘ (बोर) कती हैं। उनका बेबी राउल बौत चीखता है।’
दादी फिर अचकचाईं- ‘तुमको कैसे मालूम?’
ताता फिर इठलाई, ‘आई नो।’
दरवाजे पर आया थी। उसने सोचा था, ऑफिस से छुट्टी लेकर नीना फोन पर फोन मार ‘आया’ तलाश रही होगी। उसे देखते ही उसकी बॉछें खिल जाएंगी। सौ-डेढ़ सौ बढ़ाकर वापस आने की मिन्नतें करेगी। लेकिन मांजी को देखकर चौंक गई। अंदर जाना चाहा- ‘ताता बेबी को संभालने के वास्ते आई होंगी? क्यों मांजी? फिर भी। अपना ठिकाना छोड़कर आखिर कितना दिन रह पाओगी?’
‘जब तक ताता चाहेगी।’ आया चौंक गई। ताता भी। दादी तो सचमुच ताता के साथ ही रहती हैं, खेलती हैं। अबोध मन में दोस्ती का, विश्वास का, आश्वस्ति का एक अक्स सा उभरता गया।
आया चली गई तो दादी ने दरवाजा बंद कर पूछा, ‘अब ताता का दूध पीने का टाइम हुआ न!’
‘मैं टाइम श दूद्दू नहीं पिऊंगी तो तुम बुड्डा बाबा को बुलाओगी न।’
‘नहीं तो। बुड्डा बाबा कौन?’
‘आया बुलाती थी। आया दंदी, बैड गल्ल... दादी। अब आया आए न तो तुम कैना गेट आउट। गेट लॉस्ट....’
‘नहीं, गेट आउट किसी को नहीं कहते, बुरी बात है।’
‘कैते हैं। मैं पापा को भी कैती हूं।’ ताता उत्तेजित होकर बोली।
‘अब नहीं कहना, क्यों कहती हो?’
‘क्योंकि पापा कैते हैं। बताऊं कैशे? खूब गुश्शा होके- ताता! गेट आउट- ऐशे कैते हैं।’
‘अच्छा! मैं पापा को मना कर दूंगी कि ताता को ऐसे नहीं कहें।’
तता खुश हो गई। अपने सारे ब्लॉक्स लाकर बोली, ‘दादी! मैं तुमाले लिए घल बनाऊं?’
‘क्यों? हमारे पास घर है तो।’
‘ये तो हमाला घल है न! तुमाले लिए।’
छादी न जाने क्या सोचकर कहा, ‘अच्छा ठीक है, बना दो।’
लेकिन ताता का मन उचट गया। उसने घर नहीं बनाया। पूछा, ‘दादी! तुमाले पाछ मालूती थाउशेंड ऐ?’
‘नहीं, लेकिन मेरे पास एक बहुत अच्छी चीज है।’
‘बताओ क्या?’
‘बताऊं? मेरे पास एक बहुत ‘शुईट’ सी ताता वन थाउजेंड है।’
तता दादी के जोक पर किलकारी मारकर हंस दी। फिर तो ताता और दादी का प्रिय खेल ही बन गया। रोज दिन में कभी भी दादी एक तरह आंखें बंद कर बैठ जातीं। फिर हाथ फैलाकर एक-एक शब्द पर रूक-रूककर कहतीं- ‘मेरी-मारूति-वन-थाउजेंड कौन?’
थोड़ी दूर पर पूरे सस्पेंस में खड़ी ताता, हवा के झोंके सी आकर, दादी की गोदी में बैठकर, खुशी से चीखकर जवाब देती- ‘ताता’।
डतरी शाम अचानक कस्बे से गिरधारी आया। बताया- ‘आंधी-तूफान और घनघोर बरसात से पूरबवाली कोठरी की आधी छत उधड़ गई। आपके संदूक, पेटियां सब उघारी हैं, माताजी। किसी तरह बाल-बच्चों की निगरानी में छोड़ आया हूं... पर कब तक?... वैसे भी आप तो चारई-छह दिन बोल के आई रहीं। सब लोग वहां परेशान हैं कि माताजी बीमार-ऊमार पड़ीं क्या?’
तता ने छोटी बिल्लौरी आंखों से सब देखा, सब भांपा-
‘दादी! तुम क्यां (कहां) जाती ओ?’
‘अपने घर बेटे, तुम मेरे लिए घर बनाती थीं न!’
‘नईं।’ ताता ने आदेश दिया- ‘तुम नईं जाना।’
दादी ने बच्ची का मान रखा- ‘अच्छा, नहीं जाऊंगी।’
लेकिन ताता के मन में अंदेशा बैठ गया। दादी चली जाएंगी। मम्मी-पापा भी तो कितनी बार ऐसे ही कहते हैं, बाद में चले जाते हैं। झूठ बोलते हैं।
दादी भी किशनजी, राधाजी, घंटी, आरती सबकुछ लेकर चली जाएंगी। ताता के पास फिर से, खूब भड़कीले रंगोंवाली ढेरमढेर किताबें, स्टफ टॉएज और तेज आवाज करने वाले भोंपू बजाते हवाई जहाज, मोटरकारें, ट्रेनें, चरखियां रह जाएंगी और सबके बीच अकेली ताता... या फिर आया, बुड्डी अम्मा। बुड्डा बाबा वाली।
अचानक वह वापस दादी के पास आई-
‘दादी! तुम जाना मत! प्रॉमिश!’ दादी ने अचकचाकर देखा- ताता की आंखें दुबारा पूछ रही थीं प्रॉमिश दादी?
तता के अनजाने उसकी बिल्लौरी आंखें झील सी डभाडभ थीं। इतने कीमती आंसू अरसे से किसी ने मांजी के लिए नहीं बहाए थे। उन्होंने शौनक को एक तरफ बुलाकर कहा, ‘तुम्हारा हर्ज तो होगा, पर किसी तरह इस इतवार चले जाते तो अच्छा था। संदूक और पेटियां दूसरी कोठरी में डालकर ताला लगाकर आ जाना। मैं न जा पाऊंगी।’
‘लेकिन क्यों मां? एक-दो दिनों की तो बात है?’
‘एक-दो दिनों की बात नहीं, यह मेरे और ताता के बीच के भरोसेवाली बात है। विश्वास छोटे या बड़े नहीं हुआ करते। चाहे बच्चों के हों या बूढ़ों के।’ कहीं से सुनती, भांपती ताता दौड़ी आकर दादी की गोदी में समा गई- ‘थैंक्यू दादी!’
-सूर्यबाला
मो. 09930968670

Friday, December 25, 2015

बहनों का जलसा

बहनों का जलसा

-    सूर्यबाला

ट्रेन के प्लेटफार्म पर रुकते ही वे चारों एक दूसरे की कलाइयां पकड़े, अपनी अपनी कंडियां, थैले और बक्सियां संभालतीं, डिब्बे की तरफ दौड़ चलीं।
चढ़ती, उतरती भीड़ के बीच भी वे एक दूसरी का हाथ कस कर पकड़े, संभल कर चढ़ने की ताकीद करती जा रही थीं। पहले तू...‘ ‘नहीं तू चढ़ पहलेकी जल्दबाजी में, सबने मिल कर पहले सबसे बड़ीको चढ़ाया जबकि वह, अपने से पहले तीनों छोटियों को चढ़ाना चाह रही थी। यहां तक कि डिब्बे में चढ़ जाने के बाद भी वह लगातार बाकी तीनों के लिए , आ जा छोटी...मंझली चढ़ी?... ‘जल्दी कर संझली... जैसे चिंताकुल जुमले बोले जा रही थी।
तभी मंझली को याद आया - अरे, गाड़ी अभी रूकेगी, मैं जरा दाल चिक्की और समोसे लेती आऊं?
-‘चांटा खायेगी... चुप बैठ, गाड़ी से नहीं उतरना है अब‘ - ‘बड़ीने अपनी दाहिनी दुबली हथेली से एक सुकुमार से चांटे की शक्ल बना कर फिर उसे खिलानेकी मुद्रा भी दिखाई... इस पर मंझली, संझली और छोटी तीनों ही-ही-ही कर हंसने लगीं-
-‘बड़ी्! तू अब बड़ी ही नहीं, बूढ़ी भी हो ली... गाड़ी बिगर हरी झंडी दिखाये चलती है क्या?... यह तू पांचवीं में थी तब से अपनी समाज-विज्ञान की किताब में रटती रहती थी, इतना कि सुनते-सुनते तुझसे चार साल छोटी मुझे भी याद हो गया‘ - मंझली थी।
-‘अच्छा! याद है तुझे? तभी न सतना स्टेशन पर नल से पानी भरते हुए गाड़ी से छूटते-छूटते बची थी...
-अरे वो तो इसलिए क्योंकि गार्ड बाबू हरी झंडी से हवा करने लगे और इंजिन ड्राइवर ने समझा, हरी झंडी दिखा रहे हैं... दोनों के कनफ्यूजन में मैं बेचारी मारी गई।
-‘वरना तो बड़ी! संझली ने चिढ़ाया - गार्ड बाबू जैसे ही मंझली को किसी स्टेशन पर पानी भरते या केले मुलवाते देखते हैं न, फट् से हरी झंडी नीचे कर लेते हैं।
-‘तूने पूरी बात नहीं बताईछोटी ने टहोका दिया -अपनी मंझली, जब प्लेटफार्म पर केले खरीद रही होती है न तो गार्ड बाबू आकर कहते हैं, बहन जी अमरूद भी ले लो, इलाहाबाद के मशहूर हैं, मैं गाड़ी रोके रखूंगा जब तक आप अमरूद तुलवाओगी -
ही-ही-ही...ही...
-‘चुपो शैतानों...मंझली भड़की।
-ये लो गाड़ी खिसक के फिर रूक गई... कोई सामान चढ़वाने से रह गया होगा -
-‘अरे जामुन...! वो क्या रहा डिब्बे के दरवाजे पर-- बड़ी! मैं बस चार पूड़े जामुन के लिये आती हूं, वो,
-‘जामुन की बच्ची!ऽऽबड़ी ने सच में ही संझली की पीठ पर एक छोटा सा धौल जमाया - -हजार बार मना किया, गाड़ी से नीचे नहीं उतरना, सुनती नहीं?
-वाह! तुमने मंझली को तो दालचिक्की लाने जाने दिया था। उसे चांटा भी नहीं लगाया था... तुम उसे ज्यादा मानती हो बड़ी।
-‘ज्यादा मानती हूं? सबसे पहले तो उसे ही चांटा दिखाया था-
-‘लेकिन लगाया तो मुझे ही न!संझली रूठी।
-ही-ही...ही-ही... 
     सहसा तीनों पीछे घूमी तो मंझली आराम से पूरी बर्थ पर पैर पसार कर, टिकट, कुली, समोसों से बचे पैसों का हिसाब लगा रही थी।
-लो इस मंझली को देखो, हमेशा की बजारबाज... स्टेशन की खरीदारी के बाद इतने चिल्लर भी बचा लाई...
-स्टेशन पर कटपीसजो नहीं मिलते... खी-खी-खी...
-चोप्प! उसी कटपीस से तुम सबों के बच्चों के झबले सिल सिल कर पहनाये हैं। तेरी तरह चाट बताशे नहीं उड़ाती... तू तो घर से किसी भी काम से निकली नहीं कि पहले बताशों की दुकान पर... चटोरी....
-सो तो मैं हूं ही। ये देखो, चलने से पहले उसी चाट वाले से आलू बड़े और खस्ता कचौरियां बंधवा ली है...
-‘अरे सच्च! तो ला, निकाल।
-मैं तो आलू बड़े और खस्ता कचौड़ी भी घर में ही बना लेती हूं। कितनी किफायती पड़ती है...
-और बचे हुए पैसों से कट पीऽऽस...
ही-ही-ही-ही-ही...
तभी ट्रेन ने एक तीखी सीटी मारी और तीन की तीनों एक दूसरी पर खड़ी, बैठी भहरा पड़ंी... बड़ी ने मंझली को, मंझली ने संझली को, संझली ने छोटी को झिड़कना शुरू कर दिया - उई मांऽऽ देखती नहीं?... हाथ पैर काबू में नहीं रहते... छोटी कहीं  की... संझली कहीं की... मंझली कहीं की... और बड़ी?... ‘कहीं की नहीं‘... कहने के साथ चारो इतनी जोर से हंसी कि पिछली बर्थ के मुसाफिरों ने झुंझलाकर झांका-
-स्कूली लड़कियां हैं क्या आपलोग इतना शोर मचा रही हैं?
बहनें सकपकाईं। वो तो अच्छा था, छोटी लाइन की उस खड़खड़िया ट्रेन में, दोपहर की चण्डाली बेला में बहुत थोड़े यात्री थे। सो मनमानी की पूरी छूट। डिब्बे के शुरू में ही, आमने सामने की दोनों बर्थ खाली। चारों, दो-दो के हिसाब से आमने सामने बैठ गईं। 
-‘उफ, गरमी हो गयी... ठहरो, शीशा खोलती हूं। छोटी चकहती हुई उठी।
-लेकिन संभाल के बेटा, शीशा हाथ पे न गिरे झटके से-- बड़ी थी।
-‘हां-हाथ पैर ठिकाने तो रहते नहीं इसकेमंझली थी।
-उधर के भी दोनों खोल दे... चारो खिड़कियां, चारों शीशे... सब के सब खोल दे?- संझली भी मूड में आ गयी।
-‘हुक्म चलाये जा रही है जरा हाथ बढ़ा के अपनी तरफ का तू खुद नहीं खोल सकती संझली?‘ छोटी चिढ़ी
-क्यों खोलूं? गरमी से तू बेहाल हुई जा रही है या मैं? मैं तो तेरी खातिर कह रही हूं, जिसमें तुझे ज्यादा ठंडक पहुंचे।
-तो ठीक है, मैं सिर्फ अपनी तरफ वाला खोलती हूं-
देेख लो बड़ी... कैसा मेरा तेराकर रही है - गंदी बात है न। तुमने बचपन से इस छोटी को ज्यादा ही सिर चढ़ा रखा है...
मंझली को, छोटी और संझली को लड़ाने में हमेशा मजा आता है-
-अरे लेकिन ठीक तो कह रही है - अपनी तरफ वाला तू ही खोल ले न, तुझे भी तो आरामतलबी सूझी है...
संझली बिफरी-
-अच्छा तो अब तू भी छोटी की तरफदारी में आ गई? अपनी खिड़की तो रोब मार कर खुलवा ली, मेरी वाली के लिये -तू ही खोल लेक्यों खोल लूं? ‘इस छोटिया से तो कम से कम मैं बड़ी ही हूं...
-बड़ी ने लाड़ से झिड़का- कितना झगड़ती हो तुम तीनों? बच्चों से बढ़कर... कब बड़ी होओगी-ऐं?
-वाह! हम क्यों बड़ीहोने लगें... बड़ीका पट्टा तो तुम्हीं लिखवा के लाई हो, तुम्हीं की तुम्ही रहो।
-‘और क्या?‘ मंझली आराम से पैर हिलाते हुए बोली -अब मुफ्त में बड़ी थोड़ी बनी हो निपटाओ झगड़े - होओ हलकान लो मजा, जन्मजात बड़ीहो कर पैदा होने का...
-सच में बड़ी! मैंने अपनी याद में, शुरू से तुम्हें ऐसी ही लंबी चोटी, कानों में बुंदे, माथे पे बहुत छोटी बिंदी और हाथों में स्कूल की किताबों के साथ ही देखा है... जानती हो, जब मां बाबूजी सत्यनारायण कथा सुनते थे तो पंडित जी के मुंह से शंख, चक्र, गदा, पद्म वनमाला सुशोभितम्सुनती थी तो जाने क्यों मुझे हमेशा तुम्हारा ध्यान आ जाया करता था बहुत छोटी थी न...कहती हुई छोटी बड़ी से दुबक ली -
मंझली चिढ़ी-
-सुनो इस अक्ल की दुश्मन की बात।... ठीक है, बड़ी बहुत सीधी है, बहुत अच्छी है, मां-बाबूजी की बहुत लाडली थी... पर इतने से उसे एकदम चण्डोले चढ़ा कर सत्य नारायण कथा के विष्णु भगवान बना देना‘-
संझली को मौका मिला -
-‘छोटी! ये तूने बुरा किया, बड़ी को भगवानों की कोटि में... डाला तो अपनी मंझली को भी तो कुछ बनाना था- जैसे? जैसे कि महामृत्युंजय, रूद्र काशिकेय... वो क्या गाना है? हां, जय-जय शिव शंकर - कांटा लगे न कंकर... संझली ने मटक कर गाया तो सारी बहने हंसते हंसते लोट पोट हो ली...
     तंग आए मुसाफिर फिर झांके तो झट संभल कर बैठ गयीं।
-चोप्प! मंझली चिल्लाई देख लो बड़ी, अपनी छोटियों की कारस्तानी। अब मैं कुछ बोली तो मुझे दोष मत देना-
-छोटी! संझली! छिः छिः ऐसे चिढ़ाते हैं? तुम लोगों से बड़ी है न मंझली?
-हमी को कहोगी, मंझली को नहीं देखती हर बात में चिढ़ कर हमें डपट देती है।
-जाओ, मैं तुम तीनों से बात नहीं करूंगी... ऐसे ही लड़ती होओगी घर में तो तुम लोगों के बच्चे क्या सोचते होंगे ऐं?
-बच्चे? बच्चे कुछ नहीं सोचते हमारे बारे में...  उन्हें हममें बिल्कुल इन्टरेस्ट नहीं... और उनके पिताओं को टाइम नहीं... ज्यादा से ज्यादा इनफ मम्मी... बोल कर हमें चुप कर देते हैं और हम खुश हो जाते हैं कि हमारे बच्चे हमसे बोले... इस छोटी से पूछो, इसके वाले तो और ज्यादा अंग्रेज हैं।
-‘मेरे वाले? कानों में इयरफोन और आंखों के सामने तमाम सारे फन... गेम्स, पजल्स... वे सिर्फ मोबाइल में बोलते हैं और उनके पिता फोन पर निर्देश देते हैं। वे घर से ऑफिस जाते हैं ऑफिस से किसी न किसी एयरपोर्ट... और उसी तरह लौटते भी हैं... तीनों बहनें आंखें फाड़ कर चमत्कृत भाव से सुन रहीं थी-
-बाप रे इतनी बिजी? इसी से मनोज बाबू तुम लोगों के साथ कहीं आ जा नहीं पाते... न!
-गए थे एक बार सब साथ, मेरी जिद पर। बच्चों को पिता ने समझाया था-- हां-हां ट्रेन जर्नी इस वेरी एन्जॉयवेबुल... ईट ऐन्ड स्लीप... स्लीप ऐन्ड ईट - (खाओ और सोओ, सोओ और खाओ... जो प्लेन में नहीं हो पाता) मम्मी ढेर सारी डिशेज बना कर ले चलेंगी गुडीज और फ्रूटस... पूरी, कचौरी...
-‘अच्छा? फिर,? ‘ तीनों बहनों का कुतूहल चरम पर-
-मैंने बास्केट भर-भर कर तमाम सारी चीजें पैक कीं... तरह तरह के खाने नाश्ते का ओवर स्टॉक... सारे रास्ते पूछती रही नीता! बब्लू! केतन! संतरे छीलूं? सेब काटूं? मठरियां निकालूं?... पूरी में आलू के रोल कर के दूं?.. वे इयरफोन, मोबाइल और लैपटॉप के बीच पूरी का रोल खत्म होते ही वापस हाथ फैला देते... मैं हाथों में बनाया हुआ रोल पकड़ा कर दूसरा बनाने लगती। तबतक दूसरी हथेली फैल चुकी होती...थमाते-थमातेे सारी पूड़ियां खत्म हो गई... मेरे लिये कुछ बचा ही नहीं...
-अरे... अरे.. ऐसा कैसे... फिर? ‘बड़ीविकल हो आई।
-फिर क्या? मैं रोने लग गई...
-तब तो बहुत पछताए होंगे वे सब न?
-पछताते तो तब न जब उन्हें देखने, जानने की फुर्सत होती-
-अरे, तू रोई ओर वे जान नहीं पाये?...
-बड़ीऽऽ! जान जाते तो भी यही कहते न, कि सॉरी!... बट इट्स योर फॉल्ट... तुम्हें और ज्यादा पूरियां लानी थीं... मान लो हममें से किसी ने दो चार और पूरियां, खानी चाही होतीं तो? एक मदर को अपने बच्चों और एक वाइफ को अपने हजबैन्ड की खूराक तो पता होनी चाहिये? नो?... ‘और फिर पूरियां कमथीं, मम्मी को खाने को नहीं मिलीं... तो मम्मी रो रही है, इससे बड़ी तमाशे वाली बात कुछ और हो सकती है क्या? खास कर पति और बच्चों के लिये?
बड़ी को जाने क्या हुआ, एकदम खींच कर छोटी को चिपका लिया- अबसे तो खूब ज्यादा पूरियां लेकर चला कर बेटा - छिः सब को खिला कर, तू भूखी रह गई?
-‘नहीं बड़ी, भूखी नही रही। भूखे रहें मेरे दुश्मन... मैंने बचे हुए आलुओं की ब्रेड सैंडविच बना ली... मां कहा करतीं थीं न, भूख का गुस्सा, भूख पर कभी नहीं उतारना, अन्न देवता कुपित होते हैं, बात बनने की जगह रार और बढ़ती है... - औरत को हर छोटी, बड़ी मुसीबत से निपटना आना चाहिये... बस मैंने चटपटी चटनी और आलू लगा कर सैंडविच बना ली... अपने को समझदार मान कर खुश भी हो ली।...
-शाऽब्बाऽऽश! मंझली, संझली खुश होकर चीखीं... लेकिन बड़ी उसे भींच कर दुलारती रही-
-लेकिन मैं जानती हूं न, तुझे पूरियां कित्ती पसंद है... इत्ती सी थी तब से मैं तुझे तो मसल-मसल कर शक्कर से खिलाती थी
-‘लो हो गया भरत-मिलाप...मंझली चिढ़ी
-मंझली! तुझे चिढ़ क्यों आती है... तू भी तो हम दोनों से बड़ी है... कभी दुलारती क्यों नहीं हमें?
-क्या दुलारूं? तुमसे बड़ी हूं तो क्या, बड़ी से तो छोटी हूं... मुझे छोटा होना ही अच्छा लगता है...
-‘मुझे भीकहती हुई बड़ी ने सबसे छोटी बहनको छोड़ अपने से छोटी बहनके बाल सहलाये -तू अपने को बड़ा समझने  लगेगी तो मेरा क्या होगा ऐं?
-इति श्री रेवाखण्डे भगिनी पुराणः भजनोपध्याय... अथ भोजनो पध्यायः... संझली खिलखिलायी - छोटी के पूरी-पुराणपर सचमुच भूख लग आयी...
-अरे तो तू बोली क्यों नहीं... आते समय कौशल्या बीबी जी ने शादी की बची कचौरियां बांध दी हैं... ठहरो निकालती हूं।
-वाह! अंचार भी हैं... कहती हुई तीनों बच्चों की तरह टूट पड़ीं। फिर पहले मैं‘, ‘पहले मैंकहते हुए एक-एक टुकड़ा बड़ी बहन को खिलाने लगी।...
-‘पता है? एक बार, तुम दोनों छोटी थीं न तो मां को निमोनियां हो गया था, सबके चेहरे बदहवास - तो मैं तुम दोनों को लादे लादे फिरती थीं और रोटियां दूध में मसल मसल कर खिलाती थीं... देखो ऐसे...
-खिलाओ, खिलाओ... चम्मच से दूध भी पिलाओ... बड़ी आयी, बड़ी कहीं की... कहते हुए मंझली ने कटोरदान अपनी तरफ खींच कर जैसे ही अंचार की एक बड़ी फांक निकाली तीनों में छीना झपटी मच गई और कटोरदान का ढक्कन झनझना कर फर्श पर गिर पड़ा... झन्न... न-न-न - -
पीछे की सीटों वाले मुसाफिर दनदनाते हुए आये - आप लोग जरा देर भी कायदे से चुप नहीं बैठ सकतीं? ट्रेन का डिब्बा है या आपका घर? जब से चढ़ी हैं, हम लोगों का चैन से बैठना मुहाल... बात क्या है? क्या गिरा अभी?...
-कुछ नहीं, कुछ नहीं भाई साहब... यह यह ढक्कन गिर गया... हम लोग अभी उठाये लेते हैं...
-और अब दुबारा नहीं गिराएंगे...
-‘हम चारों बहनें हैं भाई साहब... हम बहुत सालों बाद मिले हैं... इस ट्रेन भर के लिए-
-‘ये तीनों न, मेरी छोटी बहने हैं‘ - बड़ी ने गर्व से कहा जैसे बड़ा अनूठी रहस्य खोल रही हो...
लेकिन पिछली बर्थ वाले का जाना था कि तीनों फिर खिलखिलाने लगी... वाह! बड़ी वाह!... सिचुएशन संभालना कोई तुमसे सीखे.... संझली बेफिक्री से हंसी।
-अरे अचानक मंझली को याद आया मैं तो भूल ही गई थी, मैं एक अनार भी लाई हूं...
-अऽनाऽऽऽर?... ट्रेन में अनार कौन खायेगा?... इस बार बड़ी और संझली के साथ छोटी का मुंह भी हैरानी से खुला रह गया।
-‘क्यों? हम चारों? नहीं खा सकते?‘ मंझली पहली बार उदास हो आयी।
-‘हां-हां- बिलकुल... सब मिलकर खायेंगे! फोड़ तो मंझली।बड़ी थी।
छोटी अभी भी मुंह बिचकाये बोली -
-लेकिन बड़ी! अनार के रस से तो कपड़ों पर दाग लग जाते हैं और यहां ट्रेन में चारो तरफ लिसलिस अलग-
मंझली फिर चिढ़ी छोटी पर-
-लिसलिस करेगा तो बाथरूम में पानी नहीं है धोने के लिए? इसके ऊपर नफासती हज़बैन्ड और नाक-भौं सिकोड़ू बच्चों का मूत सवार रहता है सारे समय-
-मंझली ठीक कहती है छोटी-
तब तक --
लो फूट गया अनार-‘...
चारो एक साथ बोलीं.. और मंझली शान से दोनों पैरों के ऊपर अखबार बिछा कर अनार  के दाने निकालने लगी-
-ठहरो मैं दाने निकाल निकाल कर सबको देती हूं... संझली दाने चूसती जोर से हंसी- सच में, सोचो तो सरी दुनिया के इतिहास में, और चाहे जो कुछ खाया गया हो ट्रेन में, पूरी, परांठे, केले, संतरे लेकिन अनाऽऽर...
-इसी से सिर्फ हम चारों खायेंगे, पहली बार ला मंझली-
     अचानक बड़ी मुग्ध भाव से बोली - कितने सुंदर लग रहे हैं न एक साथ जुड़े अनार के दाने-
-जैसे हम, ना बड़ी?
-लेकिन मंझली उन्हें छितराये जा रही है।
-हम भी तो अलग-अलग स्टेशनों पर छितरने वाले हैं...
-ए-चुप- बेबात की बात मत कर। ले अनार दाने...? न -
-संझली को अ से अनार मैंने ही पढ़ाया था - याद है तुझे?
-याद है बड़ी, अ से अम्मा, अ से अनार - आलू, आम न खाओ साथ-
-खी-खी- बड़ी बेकार तुकबंदी है भाई - छोटी बोली।
-हां, मुझे भी ये वाली लाइन बिलकुल पसंद नहीं थी लेकिन किताब में लिखी थी तो याद करनी थी - संझली ने कहा।
अचानक बड़ी बोली - तुझे कैसे अच्छी लगेगी- तु खुद जो इतनी अच्छी कविताएं लिखा करती थी... अभी भी लिखती है संझली? पहले तो जहां देखो वहां, गुपचुप लिखती रहती... दीवालों पर, खिड़कियों के पल्लों पर, पुरानी नोटबुक और डायरियों पर हर कहीं गुंचाती रहती। अभी भी लिखती है न!
नहीं। अब नहीं लिखती।
अच्छा किया, नहीं तो अब तक ये पूरी ट्रेन तेरी कविताओं का संग्रह हो गई होती।
बड़ी ने मंझली को आंखें तरेरीं और वापस संझली से पूछा क्यों बेटे क्यों नहीं लिखती अब?
-एक बार कविता वाला कागज घर वालों के हाथ पड़ गया था। सब के सब खूब हंसे। ... बस फाड़ कर फेंक दी... मैंने...
-अरे... लेकिन हंसे क्यों? उनके हंसने से अपनी कविता फाड़कर फेक दी तूने?
-‘क्या करती... एक बोला, मम्मी की इस कविता में राइमतुक तो कहीं है ही नहीं... तो उसके पिता हंसे  - तुम्हारा मतलब है, ‘बेतुकीकविता लिखी है तुम्हारी मम्मी ने?... तीसरा बोला - मेरी समझ से तो कविताओं से ज्यादा बेतुकी चीज़ दुनिया में कोई दूसरी नहीं...
-वे कहते थे तो कहने देती लेकिन तुझे अपनी कविता फाड़ कर फेंकनी नहीं चाहिये थी
-फिर क्या करती?... संझली रूआंसी हो आयी-
-सहेज कर रखती और क्या! मुझे याद है, एक बार तेरी लिखी कविता का एक फटा सा कागज पड़ा था। मां ने बड़े जतन से सहेज कर उसे पूजा वाले रामायण में रख लिया था।
-हां, और मां ने जो आसमान में एक खिड़की हम सबों को तकते रहने के लिये खोल रखी है, तो उन्हें तेरी कविता की चिंदियां उड़ती देख कितना कष्ट पहुंचा होगा...
-हो सकता है उन्होंने संझली की कविता की उड़ती चिंदियां संभाल कर रख ली हों।
-सच?... ठीक है, अब मैं ढेर सारी कविताएं लिखूंगी और मां के पास आसमानी डाक से छुड़वा दिया करूंगी... संझली जैसे स्वप्न में हंसी...
-मां की यही वाली याद हम चारों को सबसे ज्यादा आती है न! घर की दूसरी मंजिल की खिड़की से हमारे लौटने का रास्ता देखती हुई मां।...
-बाप रे... बाजार, हाट, मेले-ठेले से लेकर स्कूल के सालाने जलसे तक से, जरा देर हुई नहीं कि मां चिंता से बेहाल, खिड़की पर हाजिर... कि कहीं उनकी बेटियों को जरा भी ठोकर न लगी हो, खरोंच न आई हो, सिर न दुखा हो, छींक न आई हो,... मंझली थी।
-और अब? कैसा लगता है, जब, चाहे जितनी देर से घर लौटो, कोई घबराने, परेशान होने वाला नहीं... सिवा इसके कि... आ गई?‘ चाय नाश्ता तो गया मेरा... आधे पौने घंटे से पहले तुम खाना क्या दे पाओगी... तो जरा बर्फ तोड़ कर बियर की ग्लास ही पकड़ा दो... और हां, गुप्ता जी को फोन कर के अभी ही बता दो कि मैं कल बाहर जा रहा हूं।... इसी से याद आया, सुबह जल्दी ही निकलना है तो मेरी अटैची भी इसी समय लगा देना। तुम्हें टालने और भूलने की पुरानी बीमारी है - संझली अपनी रौ में उन्मादनी सी उगलती जा रही थी।
-‘एक बार रूंआसी होकर कहा था... मैं भी भीड़ में धक्के खाती टयूशन पढ़ा कर लौटी हूं... इतनी देर से आई... तो क्या तुममें से कोई मेरे लिये घबराया भी था? किसी ने सोचा कि कहीं मैं किसी रिक्शे, मोटर के नीचे... आजकल तो भरी भीड़ में किडनैप कर लिये जाते हैं लोग-
     ‘तो उन सब का सेंस ऑफ ह्यूमरउछल कर ऊपर आ गया - कम्मॉन... अब इस खुशफहमी में तो रहो मत कि कोई तुम्हें इस उम्र में किडनैप... हा-हा- और गाड़ी मोटर के नीचे आईं तो नुकसान उसी का होना... तुम्हारे पर्स में रखी डायरी में घर का पता दर्ज है ही... असल में तो तुम हमें इमोशनली ब्लैकमेल करने की तरकीबें सोचती रहती हो और कुछ नहीं...
-काश! काश! कोई भला मानुष मुझे सचमुच किडनैप कर ले जाये तो तुम लोगों को आंटे दाल का भाव - -
-‘हो-हो-हो-होजिस शाहखर्ची से तुम घर चलाती हो, इस फेर में मत रहना कि फिरौती भर की रकम मेरे पास निकलेगी। हां तुम दूध, सब्जी, महरी, रिक्शे के किराये के बहाने जब तक जो पैसे मुझसे झटकती रहती हो, उसका अतापता बता दो तो शायद वक्त, जरूरत-
-कोई पूछे कि तुमने तो पिछले चौबीस सालों से सिर्फ खर्च की कटौतियों के हवाई फरमान जारी किये हैं कि फलां के घर की तरह सिर्फ ढाई सौ ग्राम कद्दू नहीं लिया जा सकता? सिर्फ एक थैली दूध में नहीं काम चलाया जा सकता? अब कौन दूध पीता बच्चा है घर में? फलां के घर में महरी सिर्फ बर्तन धोती है, हमारे यहां झाड़ू-पोंछे-कपड़े तक की शाहखर्ची... जबकि उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि फलां की बीवी ढाई-ढाई हजार की टयूशन करने नहीं जाती... बड़े होते बच्चों के खर्च की बात करो तो, ‘तुम्हीं ने आदतें बिगाड़ी हैं... क्या जरूरत है पॉकेट मनी देने की? कह दो कि उनके दोस्तों के बापों की तरह मेरी ऊपरी आमदनी की नौकरी नहीं है बस-‘......
बुत सुनती बहने संझली को फुसलाने का उपाय सोच रही थीं। मिल भी गया। गाड़ी रूकी।
-अरे-अरे मुगलसराय... यहां गाड़ी देर तक रूकती है जंक्शन है न! अरे-देखो कैसा ताजी भुनी सोंधी-सोंधी मूंगफलियां... आजा संझली, चुटुर-चुट्ट चुटुर-चुट्ट, छील छील कर  नमक के साथ खायेंगे... बड़ी, मंझली शोर मत मचाना। हम हरी लाल झंडी पर नजर रखेंगे...
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डिब्बे में सिर्फ बड़ी और मंझली रह गई तो मंझली चुपचाप उसकी गोद में दुबक ली। बड़ी ने माथे की लटें उठा कर कान के ऊपर संवार दीं। जाने कब तक सहलाती रही।
     अचानक उंगलियां चौंक कर सिहर गईं... कानों के ऊपर बालों के नीचे गहरी चोट का अहसास। बड़ी की हथेलियां कांपी... ये चोट कैसे! कब! मंझली तूने बताया नहीं...।
-कुछ नहीं, रसोई में नीचे झुककर आलू-प्याज की कंडिया निकाल रही थी, आलमारी का कोना -
-‘हर समय अफरातफरी लगाये रहती है...तू ये तो गहरा घाव है बेटा-
     मंझली कुछ बोली नहीं। सिर्फ बड़ी की हथेलियां चोट वाली जगह को दुबारा बालों से ढांप दिया।
बड़ी स्तब्ध बैठी रही... फिर आहिस्ता बोली-
-टांके लगवाने पड़े होंगे न!
     मंझली ने निशब्द हांमें सिर हिलाया और बिखरे बालों की लट से दुबारा घाव अच्छी तरह ढांपने लगी।...
     बड़ी ने ढांपने दिया, जैसे कह रही हो, हां ढांप ले। उघाड़ने से फायदा!.. बाहर से छोटी से संझली चीखीं- अभी गाड़ी छूटने में देर है, हम गरम भजिये लेकर आते हैं... तुम दोनों घबड़ाना मत-
-हां-हां... बड़ी ने धीमे से मंझली का चेहरा अपनी ओर घुमाया - फिर माथा सहलाते हुए पूछा नहीं, जैसे कहा हो -
-‘रौनक? ?‘
जैसे चट्टाने फटी हों और आंखों से उबलते पानी का सोता फूट पड़ा हो... मंझली भलभला कर रो दी...
-‘चुप-चुपो बेटा!बड़ी ने आंचल से पहले उसकी आंखें पोंछी फिर अपनी-
-‘सर्वेश बाबू से कुछ कहासुनी...
मंझली ने बर्थ के पीछे सिर टिकाये-टिकाये नाकी -
-चाहिये क्या था?
-मो-ट-र बा-इ-क... उन्माद ग्रस्त सी मंझली ठहर-ठहर कर बोल गई... दोस्तों की मोटर साइकलों के दो-दो एक्सीडेंट। पहले ही करा चुका है। पुरानी अब काम लायक नहीं... इस बार मैं ही बरदाश्त नहीं कर पाई, चिल्ला पड़ी... उसे देख देख कर अब  छोटा भी... बच्चों के पिता को तो कुछ कहने, समझाने का कोई मतलब नहीं... 
मंझली का सिर पीछे टिका था। चेहरा तर। बड़ी ने आगे कुछ न पूछा, न उसे कहने ही दिया। सिर्फ कहा - जा आंखें धो आ, दोनों आती होंगी... देखेंगी तो तूफान मचा देंगी...
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सचमुच दोनों हड़बड़ाती हुई चढ़ीं।
-अरे-अरे - चाय वाले भइया! इधर, इधर आना - बस चार कुल्हड़...
-लो, छलकाई न कपड़ों पर...
-छलकेगी नहीं? पकड़ो पकड़ो चीखे जा रही थी, मुझे गरम नहीं लग रहा था क्या?
-‘तो मैं मैं पैसे नहीं निकाल रही थी क्या!संझली थी।
-और मंझली? कहां गई... उसे भी इसी समय बाथरूम जाना था?
-ले तो तेरी वजह से मैं बाथरूम नहीं जाती क्या?
बाथरूम से मुंह धोई, तरोताजा मंझली निकल रही थी -
बड़ी ने राहत की सांस ली।
-अच्छा बड़ी! तुम्हारा भी हमारी तरह लड़ने को मन करता होगा न!
-नहीं, मेरे और बड़ी के लड़ने की गुंजाइश ही कहां छोड़ती हो, तुम दोनों, जनम की लड़ाकनों...
     मंझली के कहते ही दोनों छोटी बहने उस पर टूट पड़ीं-
वाह जी- वाह! चली हैं बड़ीकी बराबरी करने... देखो, कैसी दूध की धुली बन रही है। हमें सब याद है, बचपन में हम दोनों, जो भी चुराते, खाते, गिराते या तोड़ते, सबकी चुगली झटपट अम्मा से कर आती थी।
-फिर? मैं तुम दोनों से बड़ी नहीं थी? तुम जैसी छोटियों और चोट्टियों को सुधारना भी तो मेरा फर्ज था।
-मी लॉर्ड! सुधार का नाटक करने वाली यह मझली अपनी खुराफातों पर पर्दा डाल रही है। वरना तो कच्ची इमली, खट्टी अमियां, अमचुर-चीनी, चुरा-चुरा कर खाती ये... और हां, दूध के ऊपर की कलाई भी... खी-खी-खी...
-देख लो, मेरा केस  इतनी चटपटी चीजों से भरा होता कि तुम दोनों भी पास आकर...जबान चटखार चटखार कर मांगती...
-‘हां, दूध-मलाई तो मंझली को शुरू से भाती थी।-बड़ी मगन होकर बोली।
-वाह बड़ी वाह! मंझली की चोरी पर भी तुम्हें प्यार आ रहा है। हे भगवान!
-मंझली इतनी गबदुल्ली सी थी (मलाई खा-खा कर) कि सभी को इस पर प्यार आता था...
-देखो कैसी फूल कर कुप्पा हो रही है... और हम दोनों छोटियां?
-तुम दोनों तो सींक-सलाई सी थी... एक दूसरी की चोटियां खींचती रहती थीं और छोड़ो मेरी चोटी‘... कह कर चीखती, रोती भी रहती थी... लेकिन चोटी दोनों में से कोई नहीं छोड़ती थीं...
-हाउस्वीट... ही-ही-ही...
-और मी लॉर्ड! इन दोनों चिन-मिनों को चुपाने और तंग आने पर चांटे लगाने की जिम्मेदारी मां हमी दोनों पर तो छोड़ती थीं...न बड़ी?--
-‘ऑर्डर! ऑर्डर...दोनों छोटियां चीखीं-
-निरी बेवकूफों? ‘ऑर्डर-ऑर्डरजज करते हैं, अभियुक्त नहीं...
-तो मी लार्ड! अम्मा का आदेश मिलते ही यह मंझली आव देखती थी न ताव, बस हमें चांटे लगा दिया करती थी... आप तक बात पहुंचने ही नहीं देती थी- जानती थी न कि बड़ी तो कभी चांटे लगाएगी नहीं...
-‘बिलकुल संझली!शोषण, धोखाधड़ी और धांधली के जितने आरोप इस मंझली पर हैं न--
-अरे देश की आज जो हालत है उसकी आधी से ज्यादा जिम्मेदारी इस मंझली पर ही-
-‘चोऽऽऽप्प!मंझली झपटी।
     तीनों की इस गुत्थमगुत्थ में पानी पीती बड़ी को इतनी जोर की हंसी आई कि हंसते हंसते सुरसुरी चढ़ गई... तीनों बहनों में, बड़ी का माथा ठोकने, पीठ सहलाने और पानी तलाशने की होड़ मच गई...
मी. लॉर्ड का मुंह धुलाया गया और न-न करते भी उसका सिर मझली ने अपनी गोद में रख कर लिटा दिया और बाकियों से चुप रहने का इशारा किया।
छोटी, कान के पास मुंह ले जाकर फुसफुसाई बड़ीऽऽ! आराम हुआ कुछ?
संझली ने पूछा-सिर के नीचे तौलिया रख दूं?
     बड़ी ने हाथ से न का इशारा किया और आंखों पे कोहनी रख ली।
शांत, स्तब्ध तीनों बहने एक दूसरी को चुप का संकेत देती बैठी रहीं।
गाड़ी एक छोटे स्टेशन पर रुकी और मिनटों में सरपट दौड़ चली।
-‘आज स्टेशन कितनी जल्दी-जल्दी आ रहे हैं न!एक बहुत धीमे से दूसरी के कान में फुसफुसाई।
दूसरी ने शः चुपकह कर... आंखें तरेरीं!
-‘बड़ी! माथा दुःखता है? हम दबा दें?‘ ... कहते हुए तीसरी ने कोहनी उठाई तो आंखों के पीछे तक की लटें तरबतर...
वह गीलापन तीनों बहनों ने एक साथ देखा और उनकी आंखें डबडबाती चली गई।
पूछ भी नहीं पाईं कि क्या दुःखता है बड़ी!
तीनों ने एक साथ सोचा, हम अपने ही दुःखों के खटरागों से उसकी झोली ठूंस-ठूंस भरते रहे।
वह हम सब की सुनती, समझती, सहलाती, बहलाती रही। मुग्ध भाव से हंसती-हंसाती रही... लेकिन उसके मन की गांठें...
-क्या हुआ पगलियों चुप क्यों हो गईं तुम सब? क्या बात है, बोलो?
-कुछ नहीं, बस स्टेशन बहुत जल्दी-जल्दी आ रहे हैं न, वही...
-गाड़ी थोडी लेट हो जाती तो क्या बिगड़ जाता इसका...
-कैसी बच्चों सी नटखटिया बातें-
-फिर न जाने कब कर पायें! ऐसी बेतुकी उटपटांग बातें... न बड़ी!
-अचानक गाड़ी एक तेज धड़धड़ाहट के साथ पुल पर से गुजरने लगी। बड़ी ने जल्दी से अपना बटुआ खोला और तीनों छोटी बहनों को एक-एक सिक्का थमा दिया
-जैसे बरसों बरस पहले मां और पिता दिया करते थे।
हां, वे पुल से गुजर रही थीं - अतीत और वर्तमान के... चारों ने एक साथ खिड़की से सिक्का फेंका। छन्न की आवाज के साथ, पुल के आयताकार गार्ड से टकराते सिक्के, चार नन्हें वृत्त बनाते, पानी में विलीन हो गए।
-लाओ एक भाई के नाम का भी डाल दें।
-कहां होगा इस वक्त!
-शायद बहुत दूर, अरब देशों में बन रहे बांध के नीचे बहती नदी को ही देख रहा हो... हमारी तरह...
-जाने क्यों अरब देश चला गया...
-तुझे कुछ पता नहीं - मकान पर कर्ज बढ़ता जा रहा था...
-समय रहते कर्ज पर काबू करना था न उसे-
-मां की बीमारी वाले कर्ज का क्या करता वो...
-अरे, भाई के नाम का सिक्का तो डाला ही नहीं?
-लेकिन नदी तो गुजर गई...
-दूसरी आयेगी। इस रास्ते में तीन नदियां आती हैं गंगा, गोमती और घाघरा...
-तुम्हें कैसे मालूम बड़ी?
-हम जब भी इस रास्ते से गुजरते, मां-बाबूजी बताते...
-तुम्हें बाबूजी की याद है?
-ले, मैं तो तेरह की थी- और इस रास्ते से तो हम हर साल छः महीने साल पर गुजरते।
-हम सब भी?
-हां, लेकिन बहुत-छोटी थीं तुम दोनों। हम सब साथ-साथ... ये ही शहर, रास्ते, नदियां... बनारस, इलाहाबाद, मिर्जापुर, जौनपुर... गंगा, यमुना, घाघरा, गोमती...
-अच्छा बड़ी! तुम छोटी थीं तो कैसी दीखती थी?
-ले, तूने बड़ी की वो बचपन वाली फोटो देखी नहीं? लेसदार फ्रॉक, नन्हें-नन्हें बूट, हाथों में जापानी गुड़िया।
-और सर पे फुलनेदार टोपा नहीं? ही-ही-ही-ही...
-हां, बड़ी गर्व से बोली तब तक अकेली मैं ही थी न, यह मंझली गबदुल्ली तो मुझ से पांच साल बाद पैदा हुई... तो जरा छींक आई, जरा हिचकी भी ली मैंने कि तहलका मच जाता - डॉक्टर, वैद्य, दीठ, दिठौने, राई-मिर्चे उतारी जाने लगतीं... उस जमाने में भी मेरे लिये मर्तबानों में बिस्कु, टॉफियां रखी रहतीं थीं कि कब किस चीज की फरमाइश कर बैठूं... मैं
-लेकिन तुम कुछ खाती ही नहीं थीं न - जब देखो, हम छोटियों के सामने भी अम्मा तुम्हारी ही चिंता में हलकान... दुष्टनियों! आपस में छीन झपट कर सारा कुछ खा जाती हो... यह नहीं कि जरा बड़ी बहन को भी-
-वाह! वह खुद क्यों नहीं खाती? जैसे हम खाते हैं, वह भी खाये... तो अम्मा बड़े लाड़ से कहतीं - वह कहां खा पाती है! ... चिड़ियों के बच्चों सी टूंगती है... एकाध बार तो इतना गुस्सा आता कि चलो हम भी नहीं खाते... देखें अम्मा हमें भी बड़ी की तरह खिलाती हैं... कि नहीं... लेकिन घंटे, आध घंटे बीतते न बीतते, हम वापस भण्डारे से आंवले के मुरब्बे निकाल रहे होते... सच में बड़ा गुस्सा आता था, तुम पर लुटते लाड़ को देख कर...
-नहीं, बड़ा अच्छा लगता था, बड़ा मजा आता था,
-जानती हूं क्योंकि तुम सब भी तो उसी लाड़  में शामिल होती गई। तुम सबको अहसास भी है इसका है न!
-हां बड़ी! है...
-इसका भी कि हमारी मां, हमारे पिता कभी उदासे नहीं हम बेटियों को देख कर... उन्होंने हमें अपने लाड़ से इतना पूर दिया, स्नेह दुलार की इतनी भरपाई कर दी कि हम पूरे जीवन अघाये रहें। जीवन में आने वाले  सारे दुःखों, दुरापदों को सह, लड़ ले जायें। वह स्नेह हमारे जीवन की बावड़ी पर स्निग्ध तेल सा उतराया रहे... बाकी सारी धूल-धक्कड़ तलछट होती चली जाये।....
-लेकिन तू आज सिर्फ अपनी बता... बड़ी!  अपने दुःखों, अपने दुरापदों की... कहां सह ले गयीं कहां लड़ ले गयी। अपनी बावड़ी की बात! तुझे नहीं मालूम, मां हमेशा तुझे सोचा करतीं थीं पर हमारे पूछने पर कुछ नहीं बताया कभी...
-मां की तो आदत ही थी परेशान होने की... चलो, रात छिरती आ रही है... कब से खाया नहीं तुम तीनों ने...
-नहीं हमें बिल्कुल भूख नहीं है... तुम बहका रही हो... आज... आज बताओ बड़ी... हम फिर न जाने कब मिलें... क्यों छोड़ दी थी तुमने कोठी, क्यों त्यागा, राम जगह सीता ने राजपाट... सारी सुख-सुविधाएं...
-सुख नहीं, सिर्फ सुविधाएं... और सुविधाएं सुख या दुःख का कारण नहीं हुआ करतीं।
-तब फिर? कारण?
-कारण बाहर से ज्यादा हमारे अंदर के हुआ करते हैं रे! बाहर जो कुछ घटता है, उससे, ज्यादा हमारे अंदर घटित होता रहता है और असल में वही हमारा जीवन संचालित करता है...
-तोऽऽऽ
-तो बस समझ ले... मन हट कर बैठा कि बस बहुत हुआ, अब इस हवेली में रहना नहीं हो पाएगा.... मोहमाया त्यागने की घड़ी आ गई--
-यूं ही? नहींप्लीऽऽज बड़ी, बुझौलिया मत बुझाओ... ठीक ठीक बताओ एक-एक शब्द... मुश्किल से हम साथ हुए हैं...
-सिर्फ हम चारों
यह समय सिर्फ हमारा है।
-और रात बीतने के साथ फिर छिन जाने वाला है।
-तो बताओ बड़ी! ठीक-ठीक कब? कैसे?
-बस ऐसे ही... किसी जलसे की शाम... बैठक खाने से आवाजें आ रहीं थीं... अपने-अपने खानदानों की खूबियां बखानी जा रही थीं... राव उमराव सिंह की आवाज बुलंद हुई - हमारे यहां तो हमेशा बेटे की पैदाइश पर बंदूकें दागी जाती हैं जनाब!... बाकायदे ऐलान किया जाता है, खानदान के नये वारिस की पैदाइश का-... लेकिन इसके पहले कि लोगों की रश्क भरी वाहवाहियों का समा बंधे... रायजादा साहब की अंधे अहंकार से भरी आवाज गूंजी थी - लेकिन हमारे यहां तो बन्दूक दोनों हाल में दगती हैं उमराव सिंह! बेटा हुआ तो भी, बेटा न हुआ तो भी‘-
एक जोरदार ठहाके से भरी दाद मिली थी इस घोषणा को-
-क्याऽऽऽ
-मैंने लाख पीछा छुड़ाना चाहा लेकिन उसके बाद रात दिन, सोते-जगते वे शब्द मेरे अंदर धांय-धांय दगते रहे... मैं उन आवाजों से डर कर गुमसुमी सुरगों में सुन्न होती चली गई। मेरे लेसदार फ्रॉकों की झालरें नुचती चली गईं, मेरे हाथों में पकड़ी जापानी गुड़िया क्षत विक्षत थी... और टॉफियों वाले मेरे मर्तबान चकनाचूर... मैं शहजादियों वाले झूले की ऊंची पैग से नीचे औंधे मुंह गिरी थी - अचानक मुझे लगा, मेरी कोख को सहम कर सूख जाना चाहिये। हमेशा के लिये बंजर...
-और... तुमने हवेली छोड़ दी...न!
-वहां पाने लायक था भी क्या... जो रखने सहेजने को मन होता... सहेजने लायक तो वह बचपन था जो हमने जिया। मन में सोचा अहंकार के इस बर्बर साये में भावी संततियां भला कैसे फलेंगी फूलेंगी... बेटी हो, चाहे बेटा... ऐसी नृशंसताओं के भरोसे नहीं छोडे़ जाने चाहिये न! कोई सृष्टि नहीं पनपने वाली यहां...
-ओह बड़ी!...
धीरे-धीरे उस सन्नाटी हवेली की पथरीली मनहूसियत समझ में आने लगीं थी, जिसमंे बरसों से किसी बेटी की किलकारी नहीं गूंजी थीं... हवेली तरसती रह गई थी... सिर्फ कुछ मिथ्याभिमानी और अहंकारी कुटेवों की वजह से।....
-फिर?
बहुत सोचा और शुभांगी को ले आयी। मैं प्रतिश्रुत थी, हवेली के प्रति भी। अन्याय नहीं कर सकती थी न!
-लेकिन उनके मां-बाप ने -
-पूछा मुझसे... मैंने कहा, वंध्या हूं मैं... बस इतना छुपाया कि यह वंध्यत्व मेरा स्वयं का चुनाव है।
-और बड़ी! तुम्हें नहीं मालूम, तुम्हें लेकर कैसी कैसी किंवदंतियां कही-सुनी जाती रहीं पास दूर से... कैसी बेतुकी अफवाहें... रहस्य भरी चर्चाएं, लोकापवादों से जोड़ कर...
-वह सब मैं नहीं जानती... लेकिन मेरे जीवन का चरम-आल्हाद... जब शुभांगी ने हवेली में अपनी अगवानी के तुरंत बाद, मेरे कमरे में आ, मेरे पांव छुए और अपनी सौगंध देकर पूछा-
-आपके वध्यत्व का रहस्य क्या है, मुझे बताएंगी दीदी!
-तो? तुमने बताया बड़ी?-
उसकी दृष्टि इतनी निष्पाप और खरी थी कि झूठ बोलना उसके साथ छल होता। जानने पर बोली - तो अपने संकल्प में मेरी अंजलि भी शामिल कर लीजिए।...
मैं सिहर गई - नहीं, यह हवेली के साथ विश्वासघात होगा। मैं तुम्हें इसलिए नहीं लाई हूं।
वह अड़ गई -बिलकुल नहीं, यह एक नई शुरुआत होगी। विश्वासघात तो कितनी कोखों के साथ इस हवेली की पीढ़ियां करती आई हैं दीदी... आप परेशान मत होइये, हम कोई साजिश, षडयंत्र नहीं रच रहे... हम सिर्फ एक सही शुरुआत की कोशिश कर रहे हैं... आपको भी बीच में नहीं लाऊंगी - आपने तो बोतल से जिन्न बाहर निकाल दिया। अब उसे उसका काम करने दीजिए - लेकिन निर्णय की घड़ियों में आपके पास ही आकर पूछूंगी-हुक्म मेरे आका...
सांस रोक कर सुनती तीनों बहनों का सब्र जवाब दे गया- लेकिन, लेकिन लोग कहते हैं... उन पर बहुत जुल्म हुए... उन पर भी बंदूक चली...
-नहीं... वह तो हवेली का भाग्य पलटने आई थी, अपना काम पूरा कर के गई। जो मुझसे कहा, कर के दिखाया। दांतो तले उंगली दबा कर लोगों ने देखा उसका न्याय। जैसे नियति को अपने वश में कर, अपना चाहा करवाती गई! प्रारब्ध का हर खेल उसके इशारों पर...
-कैसे बड़ी?
-एक करिश्मे की तरह... जो किसी ने सोचा तक नहीं था-- पहलौंठी के बच्चे जुड़वा-एक बेटी एक बेटा... और उसमें भी - बेटी तो आसानी से जनम गई लेकिन बेटे की नाल फंसी रह गई... सारी तहसील के डॉक्टरों का जमघट लगा था हवेली में... सलाह मशविरों के बाद एकमत होकर औजार से खींच कर निकाला गया शिशु को - बचा भी ले गए... निढाल, लस्त, निस्तेज होती हुई भी मुझे देख कर हंसी थी - देखा बड़ी दी! टेव रखी न मैंने। राय साहब ने (अनमने मन से ही सही) बेटी स्वीकारने का वचन दिया तो मैंने भी अपने दोनों की तरफ से उन्हें इनाम बख्श दिया। मुझे शाब्बाशी नहीं देंगी!
-मैं उसकी निस्पंद होती हथेलियां सहलाती रही थी। जितनी शाब्बाशी, जितना प्यार और जितना आभार उसका मुझ पर था उतना ले पाने का वक्त तक नहीं था उसके पास।
-‘क्यों... बड़ी!... आशंकित बहने रो पड़ीं।
-क्योंकि सारे उपायों के बावजूद डॉक्टर थक्कों, झोंको में होता रक्त स्राव नहीं रोक पाये थे। असहाय से सब उसे धीरे-धीरे अस्त होते देखते रहे... विजय गर्व से दीप्त आंखें बुझती चली गईं - चेहरे पर धूप सी खिली रहने वाली मुस्कान निस्पंद होती गई।
-तो इसका मतलब बंदूक दगने वाली बात-
-सही है... राय साहब ने खुद उसके सम्मान में दागी और बन्दूक उसकी चिता के हवाले कर दी...
-सुनने में ये सारी बातें सच नहीं, कहानी लगती है बड़ी...
-मैं खुद भी उससे यही कहती थी तो कहती वैसे भी कुछ ज्यादा फर्क है नहीं बड़ी दी कहानी और सच में... जहां तक सोचो, वह सब कहानी और हिम्मत कर, कर डाला तो... सच... मुझे भी लगता है, शुभांगी सच से ज्यादा एक कहानी थी। लेकिन मेरे जीवन के सबसे सुंदर सच, शुभांगी से जुड़ी स्मृतियां हैं। मंगल तोरण सी सजी। जैसे स्त्री जीवन की सारी ऊर्जा, सारा वरेण्य, संचित हो वहां... बहुत चिढ़ाती, खिझाती थी मुझे... कभी कहती - आज रात राय साहब से बात करने वाली हूं दीदी!... तैयार रहियेगा क्या मालूम आज की रात ही गोली चल जाए?... फिर मेरा सफेद फक् होता चेहरा देख हंस पड़ती... आप भी बड़ी दी... शुभांगी को समझती क्या हैं?... आपका चाहा पूरा किये बिना हिलने वाली नहीं इस हवेली से... लेकिन ये तो बताइए... बाद में, बहुत बाद में, कितनी-कितनी बेटियों की सप्तपदियां पढ़वाना चाहेंगी आप इस हवेली के आंगन से? आप जितनी कहेंगी, उतनी बेटियां जनूंगी... और हंसती जाती...
मैं भावुक हो जाती - न जाने कितनी पीढ़ियों की अजन्मी बेटियों का ऋण हम पर है शुभांगी, जो हमारे बचपन वाली लाड़ दुलार की अपार संपदा से वंचित कर दी गईं... यह प्रायश्चित लंबा चलने वाला है...
-बाप रे... तब तो आप ही चलाइएगा... समझीं... मैंने आपका कहा किया... तो आप भी तो मेरा कहा -- और करना भी क्या है एकदम आपकी मन चाही बात... आप ढेर ढेर सारी बच्चियों में अपना बचपन ही तो साकार होते देखना चाहती है न!
-हां, शुभांगी - एक ऐसा बचपन जो पूरा जीवन संवार ले जाने की ताकत और आत्मविश्वास दे पाये उन बच्चों को उन्हें। हमारे पास जो पूंजी होगी, वही तो हम सारी उम्र दूसरों पर खर्चेंगे-सौंपेंगे।... हमारा बचपन तो एक अदृश्य ताल की तरह है न... जब चाहे डुबकी मार कर तरोताजा हो लें... नयी ताकत, नयी ऊर्जा... और मछलियों की तरह जी भर कर तन-मन भिंगो लें...
-‘और जब लोग पूछें, मछली! मछली! कित्ता पानी?‘...  छोटी मुग्ध खिलखिलायी।
-तो हम कह सकें कि इतना पानी कि समूची धरती कमल ताल सी खिल जाए... रेलगाड़ी की यह आधी रात हम सबने आंखों में काट दी। सुबह जल्दी उठना है न! चलो, सो जाओ सब...
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बाहर भीतर का सन्नाटा गहराया था। ट्रेन अपनी रफ्तार पर।... अंधेरे में एक सहमी फुसफुसाहट तैरी थी...
-बड़ी ऽऽ! सो गईं?...
-नहीं, संझली, तुझे ही सोच रही थी।
-एक बात कहनी थी तुझसे-
-कह डाल!
-तुम्हारे और शुभांगी दी जितनी तो नहीं लेकिन एक छोटा ही सही पर बहुत दुस्साहसी कदम मैं भी उठा ले गई बड़ी... तुम से उस पर सही करवाना चाहती हूं। मंझली और छोटी के सामने हिम्मत नहीं पड़ी।.... बड़ी, वृंदा न, वृंदा अब नहीं मेरे पास... मैंने उसे एक रात चुपचाप पिछले दरवाजे से चली जाने दिया...
-जानती हूं...
-क्या?
-कि गलत नहीं किया तूने!
-...बस यही सुनना था तुझसे-
-तेरी जगह हम तीनों में से कोई होती, तो अपनी बेटी के साथ यही करती, समझी।
-लेकिन आशुतोष ने उसका गुस्सा मुझ पर उतारा।
-तो... जान गए वो...
-वो तो जानते ही... मुझसे उगलवाने की तरकीबें उन्हें मालुम हैं।
-हम सबको सच छुपाने की युक्तियां भी नहीं आतीं न!...
-वृंदा बहुत रोती थी।... वह इस तरह अपने घर से, रात के अंधेरे में छुप कर नहीं जाना चाहती थी। वधू-वेष में धान-पान के साथ विदा होना चाहा था उसने। विट्ठल ने भी। उसे यह भी पता था कि उसके जाने के बाद आशुतोष मुझे...
-मुझे मत बता संझली...
-मेरा मन हल्का हो जायेगा बड़ी!
-लेकिन मेरा मन भारी हो जायेगा बेटा!... तू बस इतना सोच, तूने वृंदा और विट्ठल को उनके जीवन की सबसे बड़ी खुशी सौंप दी।
-जो मुझे नहीं मिली... न बड़ी।
-तभी तो तूने बेटी के सुख की कीमत अदा करने का जोखिम उठाया।
-लेकिन मन घबराता है बड़ी!... पता नहीं कैसे हैं, दोनों... आशुतोष का ठिकाना नहीं...
-दोनों ठीक से हैं... सुरक्षित...
-सच! तुमने कैसे जाना बड़ी?
-वृंदा ने मुझे पत्र लिखा था, फोन पर बात भी की... उसे और विट्ठल को तेरी बहुत चिंता है।
-लेकिन आशुतोष --
-समझ जाएंगे। एक इंसान उनके भीतर भी है। तूू ले आयेगी उस इंसान को बाहर!... सो जा अब।
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सुबह की उजास फूटने से पहले ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी। मंझली ने खिड़की से बाहर झांका - अंदर एक हौल सी उठी--
-‘उ-मे-द-पुरआ गया‘-
-क्याऽ?... बाकी बहने झटके से उठ, रुआंसी हो आयी-
-इसका मतलब कुल तीन स्टेशनों बाद मंझली को उतरना है।
-‘छोटे मोटे सामान समेट ले मंझली,। बड़ी ने पीठ पर हाथ रखा।
-‘मैं स्टेशन से चाय लाती हूं‘- संझली थी।
-‘धत् पगली! अभी तो सुबह की किरन भी नहीं फूटी है।
-मिलने तो दे। देख तो रही हूं, पूरा प्लेटफार्म कितना सूना सनाका है।
-मेरे दो स्टेशन बाद ही तुझे भी तो बस पकड़नी है न!
-हां,... फिर बड़ी उतरेगी। सो तो छोटी रहेगी ही। वह आखिरी स्टेशन तक गाड़ी का पिंड नहीं छोड़ने वाली। सुन, तू संभाल कर उतार देना बड़ी को अच्छा।
-मेरी चिंता मत करो। मनु और प्रिया आयेंगे न, उतार लेंगे मुझको। छोटी को ट्रेन से नीचे उतरने की जरूरत नहीं।
-बड़ी! आखीरी स्टेशन पर तो अकेली ही उतरेगी न छोटी? और वहां से टैक्सी लेकर अकेली ही एयर पोर्ट भी जाएगी... तो बिना ट्रेन से उतरे ही?
-वो बात और है... वहां तो पूरी ट्रेन ही रुक जानी है।
-अरे, एक और स्टेशन गुजर गया। ट्रेन को थोड़ा तो रुकना था। रुकी ही नहीं।
-जाने कौन सी आफत आई जा रही है इस गाड़ी पर कि बदहवास भागी जा रही है।....
-हमेशा लेट होती है यह ट्रेन... आज लेट भी नहीं हुई।...
-कल तक हम चारों अलग-अलग अपने-अपने ठिकानों पर होंगे न!
-फिर न जाने कब...
अचानक छोटी बेसब्र हो बोल पड़ीं - बड़ी!
-बोल, बड़ी ने प्यार जताया।

- अगर हम इस गाड़ी के इंजन को पीछे की तरफ लगा दें तो यह ट्रेन उल्टी चलती जाएगी !... और हम सब ऐसे ही बैठे रहेंगे, साथ-साथ... कभी अलग नहीं होंगे...
-अरे वाह! शाब्बाश छोटी! क्या बात सूझी है तुझे... चल हम चारो बहनें इस गाड़ी के कलपुर्जे तजबीजते हैं और ऐसी चाभी घुमाते हैं कि हम चारो हमेशा हमेशा-
वे सब आखीरी बार एक साथ उन्मुक्त हंसना चाहती थीं कि-
-‘स्टेशन गया-
उतरने से पहले वे चारों एक साथ गलबहियों में प्रार्थना के गुंबद की तरह जुड़ीं फिर अलग-अलग हो गयीं।
गाड़ी धीरे-धीरे खिसक रही थी।

निर्जन प्लेटफॉर्म पर, मंझली अकेली अपने थैले के साथ खड़ी थी..... और ट्रेन के दरवाजे पर सिर से सिर जोड़े तीनों बहनें एक टक, ओझल होने तक उसे देखे जा रहीं थीं।....


सूर्यबाला
बी-504, रुनवाल सेंटर, गोवंडी स्टेशन रोड,
देवनार, मुंबई - 400088
मो. 09930968670